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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
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अभिनन्दन स्वामी बनमें जा विराजे और कठिन तपस्या करने लगे। इस तरह अठारह वर्ष तक छद्मस्थ अवस्थामें रहकर विहार किया।
एक दिन वेला उपवास धारण कर वे शाल वृक्षके नीचे विराजमान थे। उसी समय उन्होंने शुक्ल ध्यानके अवलम्बनसे क्षपक श्रेणी मांढ क्रम कमसे आगे बढ़कर दशवें गुण स्थानके अन्त में मोहनीय कर्मका सर्वथा क्षय कर दिया फिर बढ़ती हुई विशुद्धिसे बारहवें गुण स्थान में पहुंचे। वहां अन्तमुहुर्त ठहर कर शुक्ल ध्यानके प्रतापसे अवशिष्ट तीन घातिया कर्मोका नाश
और किया जिससे उन्हें पौष शुक्ल चतुर्दशीके शामके समय पुनर्वसु नक्षत्र में अनन्त चतुष्टय, अनन्त ज्ञान, दर्श, सुख, और वीर्य प्राप्त हो गये। उस समय सब इन्द्रोंने आकर उनकी पूजा को ज्ञान कल्याणका उत्सव किया। धनपतिने समवसरणकी रचना की जिसके मध्यमें सिंहासन पर अधर विराजमान होकर पूर्ण ज्ञानी भगवान् अभिनन्दननाथने दिव्य ध्वनिके द्वारा सबको हितका उपदेश दिया । जीव, अजीव, आस्रव, धन्ध संवर, निर्जरा, और मोक्ष इन सात तत्वोंका विशद व्याख्यान किया। संसारके दुःखोंका वर्णन कर उससे छूटनेके उपाय बतलाये । उनके उपदेशसे प्रभावित होकर अनेक प्राणी धर्म में दीक्षित हो गये थे। वे जो कुछ कहते थे वह विशुद्ध हृदयसे कहते थे इसलिये लोगोंके हृदयों पर उसका अच्छा असर पड़ता था। आर्यक्षेत्र में जगह जगह घूम कर उन्होंने सार्व-धर्मका प्रचार किया और संसार सिन्धुमें पड़े हुए प्राणियोंको हस्तावलम्बन दिया।
उनके समवसरणमें वजनाभिको आदि लेकर १०३ एक सौ तीन गणधर थे, दो हजार पांच सौ द्वादशांगके पाठी थे, दो लाख तीस हजार पचास शिक्षक थे, नौ हजार आठ सौ अवृधि ज्ञानी थे, सोलह हजार केवल ज्ञानी थे, ग्यारह हजार छह सौ मनःपर्यय ज्ञानके धारक थे, उन्नीस हजार विकिया ऋद्धिके धारण करने वाले थे, और ग्यारह हजार वाद-विवाद करने वाले थे, इस तरह सब मिलाकर तीन लाख मुनि-राज थे। इनके सिवाय मेरुषेणाको आदि लेकर तीन लाख तीस हजार छह सौ आर्यिकाएं थीं तीन लाग्न श्रावक थे, पांच लाख श्राविकाएं थी, असंख्यात देव देवियां थीं और थे संख्यान निर्यञ्च ।
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