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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
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देखा। पूछनेपर राजाने रानीके लिये स्वप्नोंका फल बतलाते हुए कहा कि 'आज रात्रिके पिछले पहरमें तुम्हारे गर्भमें तीर्थकर यालकने प्रवेश किया है ये स्वप्न उसीके अभ्युदयके सचक हैं।' पतिके मुखसे भावी पुत्रका प्रभाव सुनकर महारानी बहुत ही प्रसन्न हुई। उसी दिन सवेरा होते ही देवोंने आकर महाराज और महारानीका खुव सत्कार किया तथा भगवान् पद्मप्रभके गर्भ कल्याणकका उत्सव किया।
नौ माह बाद कार्तिक कृष्णा त्रयोदशीके दिन मघा नक्षत्रमें माता ससीमा ने बालक उत्पन्न किया। उसी समय देवोंने बालकको मेरु पर्वतपर ले जाकर क्षीर सागरके जलसे उसका महाभिषेक किया और अनेक तरहसे स्तुति कर माता पिताको सौंप गये । इन्द्रने महाराजके घर पर 'आनन्द' नाटक किया तथा अनेक कौतुहलोंको उत्पन्न करनेवाले ताण्डव नृत्यसे सब दर्शकोंके मन को हर्षित किया।
बालकके शरीरकी प्रभा-कान्ति पद्म कमलके समान थी, इसलिये इन्द्रने उसका नाम पद्मप्रभ रक्खा था। भगवान् पद्मप्रभ बाल इन्दुके समान प्रतिदिन बढ़ने लगे। उनकी बाल लीलाएं देख देख कर माता सुसीमाका हृदय मारे आनन्दसे फूल उठता था। उन्हें मति, श्रुत और अवधि, ये तीन ज्ञान तो जन्मसे ही थे, पर वे जैसे जैसे बढ़ते जाते थे, वैसे वैसे उनमें अनेक गुण अपना निवास करते जाते थे।
सुमति नाथके मोक्ष जानेके बाद नब्बे हजार करोड़ सागर बीत जाने पर इनका जन्म हुआ था। इनकी आयुभी इसी अन्तरालमें शामिल है । इनकी कुल आयु तीस लाख पूर्व की थी, दो सौ पचास धनुष ऊंचा शरीर था। जब आयुका चौथाई भाग अर्थात् साढ़े सात लाख पूर्व वर्ष बीत गये, तब महाराज धरण इन्हें राज्य देकर आत्म कल्याणकी ओर प्रवृत्त हो गये । भगवान् पद्मप्रभ भी राज्य पाकर नीतिपूर्वक उसका पालन करने लगे। उनके राज्यों प्रजाको हीति-भीतिका भय नहीं था। ब्राह्मण आदि वर्ण अपने अपने कार्यों में संलग्न रहते थे, इसलिये उस समय लोगोंमें परस्पर झगड़ा नहीं होता था। उन्होंने अपने गुणोंसे प्रजाको इतना प्रसन्न कर दिया था, जिससे वह धीरे