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* चौथीस तीर्थङ्कर पुराण *
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पूर्षकी भांति ही ध्यानारूढ़ देखते रहे। चौदहवें गुणस्थानमें पहुंचे हुए उन्हें बहुत ही थोड़ा ( अ इ उ ऋ ल इन पांच लघु अक्षरोंके उच्चारणमें जितना समय लगता है उतना ) समय हुआ था कि उन्होंन शुक्ल भ्यान रूपी तीक्षण तलवार के दूसरे प्रहारसे वाकी बचे हुये तेरह कर्म शत्रुओंको और भी धराशायी बना दिया। अब आप सर्वदाके लिये सर्वथा स्वतन्त्र हो गये। उनकी आत्मा तत्क्षणमें लोक शिखर पर पहुंच गई और शरीर देखते देखते विलीन हो गया। सिर्फ नत्र और केश बाकी बचे थे। उसी समय जयध्वनि करते हुए आकाशसे समस्त देव आये । उन्होंने मायासे भगवान्का दूसरा शरीर निर्माण कर उसे चन्दन, कपूर, लवग घन आदिसे बने हुए कुण्डमें विराजमान किया. फिर अग्निकुमार देवने अपने मुकुटके स्पर्शसे उसमें अग्नि ज्वाला प्रज्वलित की। उसी समय कुछ गणधर और सामान्य केवलो भो मोक्ष पधारे थे सो देवोंने भगवत्कुण्ड से दक्षिणकी ओर गणधर कुण्ड और केवली कुण्ड बनाकर उनमें उना अग्नि संस्कार किया था। ___आज पवित्र आत्माएं संसार बन्धनसे मुक्त हो गई यह सुन कर किस मुमुक्ष प्राणीको अनन्त आनन्द न हुआ होगा ? अग्नि शान्त होने पर समस्त देवोंने तीनों कुण्डोंसे भस्म निकाल कर अपने ललाट कण्ठ भुज शिखर और हृदय में लगा ली। उस समय समस्त देव आनन्दले उन्मत्त हो रहे थे। उन्हों ने गा बजाकर मधुर संगीतमें मुक्त आत्म ओं की स्तुति की, इन्द्रने आनन्दसे 'आनन्द' नाटक किया और सुर गुरु वृहस्पतिने संसारका स्वरूप बतलाया। इस तरह भगवानका निर्वाण महोत्सव मनाकर देव लोग अपनी अपनी जगह पर बले गये। पिताके वियोगसे भरतको दुवी देखकर वृषभसेन गणधरने उन्हें अपने उपदेशामृतसे शान्त किया जिससे भानजी शोक रहित हो गण. | धर महाराजको नमस्कार कर अयोध्यापुरी लौट आये। ____ नाभिराज, मरुदेवी, यशस्वती, सुनन्दा ब्राह्मी सुन्दरी आदिके जीव अपनी अपनी तपस्पाके अनुसार स्वर्गमें देव हुए । पिताके निर्वाणके बाद चक्रवर्ती भरत कुछ समय तक राज्य शासन करते तो अवश्य रहे, पर भीतरसे विलकुल उदास रहते थे। भगवान वृषभदेवकी निर्वाण भूमि होनेके कारण
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