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चतुर्दशीके दिन मृग-शिर नक्षत्रके उदयमें संध्याके समय केवल ज्ञान प्राप्त हो गया था भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी इन चारों प्रकारके देवोंने आकर उनके ज्ञान कल्याणका उत्सव किया। इन्द्रकी आज्ञासे कुवेरने समवसरणकी रचना की। जिसके मध्यमें देव सिंहासन पर अन्तरीक्ष विराजमान होकर उन्होंने अपनी सुललित दिव्य भापामें सबको धर्मोपदेश दिया वस्तुका वास्तविक रूप ममझाया, संसारका स्वरूप बतलाया, चारों गतियोंके दुःख प्रकट किये और उनसे छुटकारा पानेके उपाय बतलाए। उनके उपदेशसे प्रभावित होकर असंख्य नर नारियोंने व्रत-अनुष्ठान धारण किये थे । क्रम क्रमसे उन्होंने समस्त आर्यक्षेत्रोमें बिहार कर सार्व धर्म-जैन धर्म का प्रचार किया था।
उनके समवसरणमें चारुषेण आदि एक सौ पांच गणधर थे, दोहजार एक सौ पचास द्वादशांगके वेत्ता थे एक लाख उन्तीस हजार तीन सौ शिक्षक थे। नौ हजार छह सौ अवधि ज्ञानी थे, पन्द्रह हजार केवली थे, बारह हजार एक सौ पचास मनः पर्यय ज्ञानी थे, उन्नीस हजार आठ सौ विक्रिया ऋद्धि के धारी थे और बारह हजार धादो थे जिनसे भरा हुआ समवसरण बहुत ही भला मालूय होता था । धर्माया आदि तीन लाख वीस हजार आर्यिकाएं थीं, तीन लाख श्रावक, पांच लाख श्राविकाएं, असंख्य देव देवियां और संख्यात तिर्यश्व उनके ससवसरणकी शोभा बढ़ाती थीं।भगवान् शंभवनाथ अपने दिव्य उपदेशसे इन समस्त प्राणियोंको हितका मार्ग बतलाते थे। ___ अन्तमें जब आयुका एक महीना बाकी रह गया तब वे बिहार बन्द कर सम्मेद शैलकी किसी शिखर पर जा विराजमान हुए और हजार मनुष्योंके साथ प्रतिमा योग धारण कर आत्म ध्यानमें लीन हो गये । अन्तमें शुक्ल ध्यानके प्रतापसे बाकी बचे हुए चार अधातिया कर्माका नाश कर चैत्र शुक्ला षष्ठीके दिन सायंकाल के समय मृगशिर नक्षत्रके उदयमें सिद्धि सदन-मोक्ष को प्राप्त हुए देवोंने आकर उनका निर्वाण महोत्सव मनाया।
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