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* चौबीस तीर्थकर पुराण *
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प्रवृष्ट हुए। वहां गंगा नदोके किनारेके वनों में अपनी विशाल सेना ठहरा कर लवण समुद्र के ऊपर अधिकार करनेकी इच्छासे भरत महाराज तीन दिनतक चहीं रहे। वहां उन्होंने लगातार तीन दिनका अनशन किया तथा कुशासन पर बैठकर जैन शास्त्रोंके मन्त्रोंकी आराधना की। यह सब करते हुए भी भरत परमेष्ठि पूजा सामयिक आदि नित्यकर्म नहीं भूलते थे। यहां भी उन्होंने पुरोहितके साथ मिलकर पञ्च परमेष्ठीकी पूजा की थी और एकाग्र चित्त होकर भ्यान सामयिक वगैरह किया था। फिर समस्त सेनाकी रक्षाके लिये सेनापतिको छोड़कर अजितंजय नामक रथपर सवार हो गंगा द्वारसे प्रवेशकर लवण समुद्रमें प्रस्थान किया। वे जिस स्थपर बैठे हुए थे वह अनेक दिव्य अस्त्रोंसे भरा हुआ था। उसमें जो घोड़े जोते गये थे वे जलमें भी स्थलकी तरह चलते थे और अपने वेगसे मनके वेगको जीतते थे। उनका वह रथ पानी में ठीक नावकी तरह चल रहा था । रथके प्रथल वेगसे समुद्र में जो ऊंची लहरें उठनो थीं उनसे ऐसा मालूम होता था मानो वह भरतके अभिगमनसे प्रसन्न चित्त होकर बढ़ रहा हो। चलने चलने जब वे बारह योजन आगे निकल गये तब उन्होंने वजमय धनुषपर अपने नामसे अङ्कित बाण आरोपित किया और कोधसे हुंकार करते हुए ज्योंही उसे छोड़ा त्योंही वह मगध देवकी सभामें जा पड़ा। चाणके पड़ते ही मगध देवके क्रोधका ठिकाना नहीं रहा। वह अपनी अल्प समझसे चक्रवर्तीक साथ लड़नेके लिये तैयार हो गया। परन्तु उनके बुद्धिमान मन्त्रियोंने याण में चक्रवर्ती भरतका नाम देखकर उसे शान्त कर दिया और कहा कि "यह चक्रवर्तीका बाण है इसकी दिव्य गन्ध, अक्षत आदिसे पूजा करनी चाहिये । इस समय प्रथम चक्रवर्ती भरत दिग्वि. जयके लिये निकले हुये हैं, वेबड़े प्रतापी हैं। भरत क्षेत्रके छह खण्डकी बसुधा पर उनका एक छत्र राज्य होगा। सब देव, विद्याधर आदि उनके वशमें रहेंगे इसलिये प्रबल शत्रुके साथ विग्रह करना उचित नहीं है" मन्त्रियोंके वचन सुन कर मगधका कोप शान्त हो गया। अब वह अनेक मणि मुक्ताफल आदि लेकर मन्त्री वगैरह आप्त जनोंके साथ सम्राट् भरतके पास पहुंचा और वहां उनके सामने समस्त उपहार भेंट कर विनम्र शब्दोंमें कहने लगा --'देव ! आज हमारे
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