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* चौबीस तीर्थङ्कर पुराण *
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सवार होकर नदी, नद, तालाब, बगीचा आदिकी सैर करते थे और सभी ऊंचे ऊंचे पहाड़ोंकी चोटियों पर चढ़कर प्रकृतिकी शोभा देखते थे। इस प्रकार राजकुमार वृषभनाथने सुख पूर्वक कुमार काल व्यतीत कर तरुण अवस्थामें पदार्पण किया। उस समय उनके शरीरकी शोभा तपाये हुये काञ्चनकी तरह बहुत ही भली मालूम होती थी। उनका शरीर 'नन्द्यावर्त' आदि एक सौ आठ लक्षण और मसूरिका आदि नौ सौ व्यजनोंसे विभूषित था। उनका रुधिर दूधके समान सफेद था, शस्त्र पाषाण,धूप,सरदी,वर्षा,विष,अग्नि,कंटक आदि कोई भी वस्तुयें उन्हें कष्ट नहीं पहुंचा सकती थीं। उनके शरीरसे फूले हुये कमल सी गन्ध निकलती थी । जवानीने उनके अंग प्रत्यंगमें अपूर्व शोभा ला दी थी। यदि आप कवियोंकी वाणीको गप्प न समझते हों तो मैं कहूँगा कि उस समय निशा नायक चन्द्रमा अपने कलंकको दूर करनेके लिये भगवानका मुख बन गया था और उसकी स्त्री निशा अपना दोषा नाम हटानेके लिये उनके केश बन गई थी। यदि ऐसा न हुआ होता तो वहां उत्पल ( नयन-कुमुद ) और उत्तम श्री ( अन्धकारकी शोभा तथा उत्कृष्ट शोभा) कहांसे आती ? क्योंकि उत्पलोकी शोभा चन्द्रमाके रहते हुये और अन्धकारकी शोभा रातके रहते हुये ही होती है। उनके गलेमें तीन रेखायें थीं जिनसे मालूम होता था कि वह गला तीनों लोकोंमें सबसे सुन्दर है। गलेकी सुन्दर आभा देखकर बेचारे शंख से न रहा गया और वह पराजित होकर समुद्र में डूब मरा । कोई कहते हैं कि उनका वक्षःस्थल मोक्ष स्थान था क्योंकि वहां पर शुद्ध दोष रहित मुक्ताःमोतो तथा मुक्त जीव विद्यमान थे। और कोई कहते हैं कि उनका वक्षःस्थल हिमालय पर्वत था क्योंकि उसपर मुक्ता हार रूपी गंगाका प्रवाह पड़ रहा था। उनकी नाभि सरोवरके समान सुन्दर थी उसमें मिथ्यात्व रूपी घामसे संतप्त हुआ धर्म रूपी हस्ती डूबा हुआ था इसलिये उसके पासकी काली रोम राजि उस हस्तीकी मद धारा सी मालूम होती थी। उनके कन्धे बैलके ककुदके समान अत्यन्त स्थूल थे। भुजायें घुटनों तक लम्बी थीं। उरू त्रिभुवन रूप भवनसे मजबूत खम्भोंके समान जान पड़ती थीं और चरण लाल कमलोंकी तरह मनोहर थे।