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* चौबीस तीथक्कर पुराण *
धन सम्पनि वगैरहमें कैले स्थिर बुद्धि की जा सकती है ? यह प्राणी पापके वश नरक गतिमें जाता है, वहां लागरों वर्ष पर्यन्त अनेक तरहके दुख भोगता है वहांसे निकल तिर्यंच गतिमें शोत उडण भूख-प्यास आदिके विविध दुःख उठाता है । कदाचित् सौभाग्यसे मनुष्य भी हुआ तो दरिद्रता रोग आदिसे दुःखी होकर हमेशा संक्लेशका अनुभव करता है और कभी कुछ पुण्योदयसे देव भी हुा तो वहां भी अनेक मानसिक दुखोंसे दुखी होता रहता है। इस तरह चारों गतियों में कहीं भी सुखाका ठिकाना नहीं है। सच्चा सुख मोक्षमें ही प्राप्त हो सकता है और वह मोक्ष मनुष्य पर्यायसे ही प्राप्त किया जा सकता है। इस मनुष्य पर्यायको पाकर यदि मैंने आत्म कल्याणके लिये प्रयत्न नहीं किया तब मुझसे सूर्ख और कौन होगा ?” इधर भगवान् अपने हृदयमें ऐसा विचार कर रहे थे उधर ब्रह्मलोक-पांचवें स्वर्गमें रहनेवाले लोकान्तिक देवोंके आसन कम्पायमान हुए जिससे वे भगवान आदिनाथका हृदय विषयोंसे विरक्त समझ कर शीघ्र ही उनके पास आये और तरह तरहके वचनोंसे स्तुति कर उनके विचारोंका समर्थन करने लगे। देवोंके वचन सुनकर उनकी वैराग्यधारा अत्यन्त वेगवती हो गई। अब उन्हें राज्य सभामें, गगन, चुम्बी महलोंमें, स्वर्गपुरीको जीतनेवाली अयोध्यापुरीमें और स्त्री, पुत्र, धन, धान्य आदिमें थोड़ा भी आनन्द नहीं आता था। जब लौकान्तिक व अपना कार्य समाप्त कर हंसोंकी नाई आकाशमें उड़ गये तब इन्द्र प्रतीन्द्र आदि चारों निकायके देवोंने अयोध्यापुरी आकर जय जय घोषणा के साथ भगवानका क्षीरसागरके जलसे अभिषेक किया। अभिषेकके बादमें तपः कल्याणककी विधि प्रारम्भ की। इसी बीचमें भगवान् वृषभदेवने ज्येष्ठ पुत्र भरतके लिये राजगद्दी देकर बाहुबलीको युवराज बना दिया था जिससे वे राज्य कार्यकी ओरसे बिलकुल निराकुल हो गये थे। उस समय तपाकल्याणक और राज्याभिषेक इन दो महान् उत्सवोंसे नर नारियों और देव देवियोंके ही क्या प्राणी मात्रके हृदयों में आनन्द सागर लहरा रहा था। त्रिभुवन पति भगवान् वृषभनाथ, महाराज नाभिराज और महारानी मरुदेवी आदिसे आज्ञा लेकर वनमें जानेके लिये देव निर्मित पालकीपर सवार हुए। वह पालकी खुब