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* चौबीस तीथकर पुराण *
में सबसे पहले दानकी प्रथा श्रेयान्स कुमारने ही चलाई थी इसलिये देवोंने आकर उसका खुब सत्कार किया। जव सम्राट् भरतको भी इस बातका पता चला तब वे भी समस्त परिवारके साथ हस्तिनापुर आये और वहां सोमप्रभ श्रेयान्स तथा लक्ष्मीमतीका सत्कार कर प्रसन्न हुए। इसके अनन्तर श्रेयान्स कुमारने दानका स्वरूप, दानकी आवश्यकता तथा उत्तम मध्यम जघन्य पात्रोंका स्वरूप बतलाकर दान तीर्थकी प्रवृत्ति चलाई। प्रथम तीर्थकर वृषभदेवको आहार देकर श्रेयान्स कुमारने जिस लोकोत्तर पुण्यका उपार्जन किया था उसका वर्णन कौन कर सकता है ? आचार्योने कहा है कि जो तीर्थकरोंको सबसे पहले आहार देता है वह नियमसे उसी भवसे मोक्ष प्राप्त करता है सो श्रेयांस भी लोकमें अत्यन्त प्रतिष्ठा प्राप्त कर जीवनके अन्त समयमें मोक्ष प्राप्त करेंगे।
भगवान् आदिनाथ वीहड़ अटवियोंमें ध्यान लगाकर आत्मशुद्धि करते थे । वे बहुत दिनोंका अन्तराल देकर नगरों में आहार लेनेके लिये आते थे सो भी रूखा सूखा स्वल्प आहार करते थे। वे अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्त शय्यासन, कायक्लेश, प्रायश्चित्त विनय, चैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इन बारह तपोको भलीभांति तपते थे। उन्होने जगह जगह घूमकर अपनी चेष्टाओंसे मुनि मार्गका प्रचार किया था। यद्यपि वे उस समय मुंहसे कुछ बोलते न थे तथापि इनकी क्रियाएं इतनी प्रभावक होती थीं कि लोग उन्हे देखकर बहुत जल्दो प्रतिवुद्ध हो जाते थे। वे कमी ग्रीष्म ऋतुमें पहाड़की चोटियोंपर ध्यान लगाते थे, कभी शीत कालकी विशाल रातोंमें नदियोंके तटपर आसन जमाने थे और कभी वर्षा ऋतुमें वृक्षोंके नीचे योगासन लगाकर बैठते थे। इस तरह उग्र तपश्चर्या करते करते जब उन्हें एक हजार वर्ष वीत गये तब वे एक दिन 'पुरिमताल' नामक नगरके पास पहुंचे और वहां शकट नामक बन में निर्मल शिलातलपर पद्मासन लगा कर बैठे। उस समय उनकी आत्म विशुद्धि उत्तरोत्तर बढ़ती जाती थी जिसके फल स्वरूप उन्होंने क्षपक श्रेणीमें प्रवेश कर शुक्ल ध्यानके द्वारा ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घातिया कर्मोका नाशकर
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