________________
* चौवीस तीर्थङ्कर पुराण *
ध
पृथ्वी कांचके समान निर्मल हो गई थी, समस्त ऋतुएं एक साथ अपनी अपनी शोभाएं प्रकट कर रही थीं, पृथ्वीमें कहीं कण्टक नहीं दिखाई देते थे, सब ओर सुभिक्ष हो गया था, कहीं आत ध्वनि सुनाई नहीं पड़ती थी और उनके आगे धर्म चक्र तथा अष्ट मंगल द्रव्य चला करता था। कहने का मतलब यह है कि उनके पुण्य परमाणु इतने सभग और विशाल थे कि वे जहां भी जाते थे वहीं देव, दानव,मानव आदि सभी जन्तु उनके वशीभूत हो जाते थे । विहार करते करते वे जहाँ रुक जाते थे , धनपति कुवेर वहीं पर पूर्वकी तरह समवसरण -दिव्य सभाकी रचना कर देता था। जहां बैठकर भव्य जीव सुख पूर्वक आत्महितका श्रवण करते थे। उनके उपदेशकी शैली इतनी मोहक थी, कि वे जहां भी उपदेश देते थे वहीं असंख्य नरनारी प्रतिवुद्ध होकर मुनि, आर्यिका, श्रावक श्राविका बन जाते थे। उस समय सकल भारतवर्ष में अखंड रूपसे जैन धर्म फैला हुआ था। इस प्रकार देश विदेशों में घूमकर वे कैलाश गिरि पर पहुंचे और वहां आत्म ध्यानमें लीन हो गये । अब कुछ सम्राट भरत के विषय में सुनिये
समवसरणसे लौटकर महाराज भरतने पहिले चक्ररत्नकी पूजा की और फिर याचकों को इच्छानुसार दान देते हुये पुत्रोत्पत्तिका उत्सव किया। 'अभिनव राजा भरतके पुत्र उत्पन्न हुआ है' यह समाचार किसे न हर्षित बना देता था? उस उत्सवमें अयोध्यापुरी इतनी सजाई गई थी कि उसके सामने पुरन्दरपुरी अमरावती भी लजासे सहम जाती थी। प्रत्येक मकानोंकी शिखरोंपर तरह तरहकी पताकाएं फहराई गई थीं राजमार्ग सुगन्धित जलसे सींचे गये थे, बड़े बड़े बाजोंकी आवाजसे. आकाश गुजाया गया था, सभी ओर मनोहर संगीत और नृत्य-ध्वनि सुनाई पड़ रही थी, जगह जगह तोरण द्वार बनाये गये थे, और हर एक घरोंके द्वार पर मणिमयी वन्दन मालाएं लटकाई गयी थीं। उस समय अन्तःपुरकी शोभा तो सबसे निराली ही नजर आती थी। ____ इधर समस्त नगरमें पुत्रोत्पत्तिका उत्सव मनाया जा रहा था, उधर महाराज भरत दिग्विजयकी यात्राके लिये तैयारी कर रहे थे। वह समय शरदऋतु का था । आकाशमें कहीं कहीं सफेद बादलोंका समूह फैल रहा था. जो कि
-
% 3D% 3D