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* चौबीस तीथकर पुराण *
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आपका ही व्यक्तित्व सबसे ऊंचा है। इसके लिये आप किसी योग्य कन्याके साथ विवाह सम्बन्ध करनेकी अनुमति दीजियेगा।" जब इतना कहकर नाभिराज चुप हो रहे तब भगवान वृषभनाथने सिर्फ मन्द मुसकानसे पिताके वचनों का उत्तर दिया। महाराज नाभिराज पुत्रकी अनुमति पाकर बहुत प्रसन्न हुए उन्होंने उसी समय इन्द्रकी सहायतासे विवाहकी तैयारियांकरनी शुरू कर दी और किसी शुभ मुहुर्तमें राजा कच्छ और महाकच्छकी बहिनें यशस्वती तथा सुनन्दाके साथ विवाह कर दिया। यशस्वती और सुनन्दाके सौन्दर्यके विषयमें विशेषन लिखकर इतनाही लिखना पर्याप्त होगा कि वे दोनों अनुपम सुन्दरी थीं उस समय उन जैसी सुन्दरी स्त्रियां दूसरी नहीं थीं। भगवान के विवाहोत्सवमें देव तथा देवराज सभी शामिल हुए थे। पुत्र वधुओंको देखकर माता मरु देवी का हृदय फूला न समाता था। उन दिनों अयोध्यामें कई तरहके उत्सव मनाये गये थे। यशस्वती और सुनन्दाने अपने रूप पाशसे वृषभनाथके चंचल चित्तको अपने वशमें कर लिया था। वे उन दोनोंके साथ नाना तरहकी क्रीडाएं करते हुए सुखसे समय विताने लगे।
किसी एक दिन रातके समय यशस्वती महादेवी अपने महलकी छतपर पड़े हुए रत्नखचित पलंगपर सो रही थी। सोते समय उसने रात्रिके पिछले पहरमें सुमेरू पर्वत, सूर्य, चन्द्र, कमल, महीग्रसन और समुद्र ये स्वप्न देखे सवेरा होते ही माङ्गलिक बाजी तथा बन्दी जनोंकी स्तुतियोंके मनोहर शब्दोंसे उसकी नींद खुल गई । जब वह सोकर उठी तब उसे बहुत आश्चर्य हुआ। उसने स्वप्नोंका फल जाननेके लिये बहुत कुछ प्रयत्न किये पर जब सफलता न मिली तब नहा धोकर और सुन्दर वस्त्राभूषण पहिनकर भगवान वृषभनाथके पास गई। उन्होंने उसका खूब सत्कार किया तथा अपने पासमें ही सुवर्ण मय आसनपर बैठाया। कुछ समय बाद उनसे महादेवीने रातमें देखे हुए स्वप्न कहे और उनका फल जाननेकी इच्छा प्रकट की। हृदय वल्लभाके वचन सुनकर भगवान् वृषभनाथने हंसते हुए कहा कि सुन्दरि ! तुम्हारे, मेरुपर्वत. के देखनेसे चक्रवर्ती, सूर्यके देखनेसे प्रतापी, चन्द्रमाके देखनेसे कान्तिमान, कमलके देखनेसे लक्ष्मीवान, महीग्रसनके देखनेसे समस्त वसुधाका पालक और