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महापुरुषो के नेतृत्व में अहिंसा और आत्म विद्या का प्रभाव बढ़ता है।
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जायेगे । महाराज श्री दर्शन करने के लिये पर्वत पर गये उस समय १०५ डिग्री ज्वर था। निर्बलता भी पर्याप्त थी । महाराज श्री ने बड़े उत्साह और हर्ष से दर्शन किये । सन्यास भी ग्रहण कर लिया अर्थात् अन्न का त्याग कर दिया । फाल्गुन सुदी १३ को जल मात्र लिया।
अंतिम संदेश
, त्रयोदशी को ही अन्न जल त्यागकर सन्यास धारण करते समय कहा था कि अण्टान्तिका की पूर्ति परसो है न ? लोगो ने कहा, हां महाराज ! "सब लोग धर्म का सेवन न भूलें । आत्मा अमर है।"
फाल्गुन सुदी १४ को और भी शक्ति क्षीण हो गई। डाक्टरों ने महाराज श्री को देखकर कहा कि महाराज का हृदय वडा दृढ़ है, औपधि लेने पर तो शर्तिया स्वस्थ हो सकते हैं। परन्तु गुरुदेव कैसी औपधि लेते। उनके पास तो मुक्ति में पहुंचाने वाली परम वीतराग नामक आदर्श महौषधि थी।
शरीर-त्याग
__ फाल्गुन सुदी १५ के दिन बारह वज कर बीस मिनट पर गुरुदेव ने इस विनाशशील शरीर को छोड़ अमरत्व की प्राप्ति कर ली। यह सन १६४५ को २६ फरवरी का दिन था। इस दिन अष्टान्हिका को समाप्ति थी। दिन भी चन्द्रवार था। परमाराध्य गुरुदेव चन्द्र सागर ने पूर्ण चन्द्रिका-चन्द्रवार के दिन सिद्ध क्षेत्र पर होलिका की आग में अपने कर्मो को शरीर के साथ फंक दिया। समस्त भक्तजन स्वामीराज के वीतराग शरीर को ओर विलखते रह गये। सभी के नेत्र अब प्लावित हो गये।
चरण-वन्दना
दृढ़ तपस्वी, आर्ष मार्ग के कट्टर पोषक वीतरागी, परम विद्वान, निर्भीक, प्रसिद्ध उपदेशक, आगम मर्मस्पर्शी अनर्थ के शत्र, सत्य के पुजारी, मोक्षमार्ग के पथिक, सांसारी प्राणियों के तारक, आत्मबोषि, स्वपरोपकारी, अपरिग्रही तारण-तरण, संताप हरण, गुरुदेव के चरण कमल में शत-शत वन्दन ! शत्-शत् वन्दन ।
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