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राग द्वेष से व्याप्त हृदय में समता रूपी लक्ष्मी प्रवेश नहीं करती।
केवली भले ही अपने ज्ञान से जीव के या द्रव्य के भवितव्य को देखें, परन्तु वस्तुत्व का परिणमन उपादान व निमित्त से हो जाय तो उसमें कोई हानि नहीं है। केवली ने उस परिणमन को उसी प्रकार देखा है। उन्होने उपादान को भी देखा है, निमित्त को भी देखा है। इसमे आपत्ति क्या है ?
निमित्त निमित्त का कार्य करता है। उपादान उपादान का कार्य करता है ऐसा मानने में क्या हानि है ? निमित्त उपादान का कार्य करता है ऐसा कोई नही मानते है । अथवा उपादान निमित्त का कार्य करता है ऐसा भी कोई नही मानते है। ऐसी स्थिति में अपनी अपनी जगह दोनो को महत्व दिया जाय तो क्या हानि हो सकती है?
निमित्त यदि अकिचित्कर है। कार्य करने में उसका कोई भाग नही है तो उसकी उपस्थिति क्यो चाहिये, उपादान में कार्य प्रवण की योग्यता के समय वह निमित क्यों उपस्थित होता है ? इन प्रश्नो का उत्तर हमारे निमित्त विरोधी वन्धु नहीं दे सकते हैं।
आचार्य परम्परा के विरुद्ध सिद्धान्त का प्रचार क्यों किया जाय ? स्वकपोल' कल्पना के लिये जैनागम परम्परा में कोई स्थान नहीं है । इतना ही नहीं वह अनुष्ठान भी पाप मय है।
दर्पण पर धूल जमा हुआ है दर्पण अन्दर से स्वच्छ है । अर्थात् उसका उपादान उसके साथ ही है । तथापि धूल जमने के निमित्त से अपने उपादान को प्रकट नहीं कर सकता है।
धूल को पोंछने पर वह दर्पण स्वच्छ होकर मुख को दिखा सकता है। उस दर्पण में उपादान के होने पर भी निमित्त के कारण से उपादान की शक्ति जागृत नहीं हो रही थी, और प्रतिबंधक निमित्त के हटने पर एव कार्यकारी निमित्त के प्रकट होने पर उपादान ने कार्य किया । यह स्पष्टतः हमें दिखता है।
पेट्रोल समाप्त होने पर गाड़ी नहीं रुकी पेट्रोल मोटर के चलने में सहायक है । गाड़ी चलने मे वह निमित्त है। पेट्रोल के समाप्त होने पर भी गाड़ी अपने आप रुकती है। चलने रूप उसको क्रिया नही हो सकती है। परन्तु इसे घुमाकर फिराकर यह कहना कि पेट्रोल समाप्त होने पर गाड़ी नही रुको, गाड़ी को रुकना था इसलिए पेट्रोल समाप्त हो गया, इस शब्द की कसरत में क्या अर्थ है।
लोक प्रसिद्ध बात तो यही है कि निमित्त के अभाव में नैमित्तक द्रव्य अपने कार्य को नही करता है।
जो लोग निमित्त को स्वीकार न करते हुये या निमित्त को स्वीकार करते हुए भी उसके कार्य को स्वीकार नहीं करते है वे लोगों को पुरुषार्थ होन बनाते है। जब भी जिस देश में जिस काल में जो कुछ भी भवितव्य होगा,हागा ही, उसके लिये प्रयत्न करने को क्या आवश्यकता है ? मानव उसके लिये जो प्रयत्न करता है, अपने कार्य को सिद्ध के लिए निमित्तो को मिलाये रहता है, वह भूल करता है। सब कुछ उपादान से ही होवेगा। ऐसी मान्यता दैववादी को हो सकती है। पुरुषार्थवादी इसे स्वीकार नहीं कर सकता है। [२६]