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वास्तविक सुख अपने भीतर ही है बाहिर नहीं है।
अर्थः--कर्ण के मध्य छिद्र जवकी नाली समान अर्ध भाग रखै कर्ण के और नेत्र के साढ़े
४ भाग का अन्तर रखै ॥२७॥ उक्तंच कणौचषड् भागयुतौ प्रलंबौ । वेदांगुल व्यासयुतौ तदंतः ॥
छिद्रे तु नाली यवनालिकामा । त्वर्धागुलं चांतर मुच्यतेथ ॥२८॥ अर्थः--कर्ण छ भाग लंबे ४ भाग चौडे कर बीच में छिद्र की नाली यव की नाली - समान करै। इसका अन्तर अर्धागुल प्रमाण करै ॥२८॥
उछ यस्य समत्वेन, कर्णवत्तिनियो जयेत् ॥
तथा नेत्रांत तुल्येन, कर्णपूरौ सरंधाको ॥२६॥ अर्थः--नेत्रों को ऊँचाई अर्थात् भंवारे की ऊँचाई के सीध में कर्ण वत्तिका वणाव वैसे ही नेत्रों के अंत्य भाग की सीध में छिद्र रहित कर्ण पूर बनावै ॥२६॥
॥ नासिका कयन ॥ करवीर समं कुर्यान्नासापुट निबंधनं ॥
तस्य पर्यंत तुल्येन तारिके विनयो जयेत् ॥३०॥ अर्थः-कर वीर अर्थात नेत्र की सफेदी के समान नासा पुटको रचना कर । नासिका के पर्यन्त भाग के तुल्य तारिका बनावै ॥३०॥
अष्टा दशांगुलं ज्ञेयं, कर्णयोः पूर्व मंतरं ।।
चतुर्दशा परे भागे, द्वात्रिंशन्मिलितं भवेत् ॥३१॥ अर्थः-दोउ कर्णनि के अंतर १८ भाग अगाडी सें रखै । १४ भाग पिछाडी से रखे । ऐसे दोनू मिले ३२ भाग होते हैं ॥३१॥
' शिरसः परिणा होयं ग्रीवा या द्वादशांगुलः ॥
विस्तारः कर्पूर स्योक्तः सत्यंशांगुल पंचकं ॥३२॥ अर्थः-कोहनी की परिधि १६ भाग की रखै । कोहनी से पौंछा तक क्रम से हानि रूप चूडा उतार रखे ॥३२॥
भुजा कथन परिणाहः पुनस्तस्य विज्ञ यः षोडशांगुलः ॥
कुर्या स्कूपर तो हानि मणि बंधा धिक्रमात् ॥३३॥ अर्थ:-कोहनी की परिधि १६ भाग की रखै । कोहनी से पौछा तक क्रम से हानि रूप
चूडा उतार रखे ॥३३॥ [१५६]