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धर्मात्माओं के साथ गौषत्सवत् प्रम. करमा वात्सल्य अंग है।
सप्त मनः' पर्यये केवलज्ञाने योगिद्विकं प्रमत्तादीनि । ॥ चत्वारि सामायिकयुगले प्रमत्तयुगलं च परिहारे ॥१६॥ • भावार्थ-मनपर्यय ज्ञान छट्टे से बारहवे तक सात गुण स्थान में होता है। केवलज्ञान-तेरा, चौदा ऐसे दो गुण स्थान में होता है । इति ज्ञान मार्गणा ॥ सामायिक च्छेदोपस्थापन, छ8 से नववे तक चार गुण स्थान में होते हैं। परिहारविशुद्धिसंयम , सातवें दो गुण स्थान मे होता है।
सूक्ष्मे सूक्ष्म अन्तिम चत्वारि भवन्ति यथाख्याते।
चरिता चरिते एकं पंचमकं असंयमे चत्वारि ॥१७॥ भावार्थ-सूक्ष्मसाम्पराय संयम एकदशवे गुण स्थान में होता है । यथाख्यात संयम ग्यारह से चौदा चारों गुण स्थानों में होता है । देश संयम, पाँचवें गुण स्थान में होता है । असंयम सातवां पहिले से चौथे चार गुण स्थानों में होता है ।। इति संयम मार्गणा पूर्ण ॥
द्वादश चक्षुर्द्विके नव अवधौ द्वे केवलालोके ।
कृष्णादित्रिके चत्वारि तेजः पद्मयोः सप्तगुणाः॥१८॥ भावार्थ-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन दोनों पहिले से बारहवें तक बारह गुण स्थानों में होते हैं । अवधि दर्शन चौथे बारहवें तक नव गुण स्थानों में होता है। केवलदर्शनतेरह, चौदह दो गुण स्थानों में होता है । इति दर्शन मार्गणा ॥ कृष्ण, नील, कापोत तीन लेश्या पहिले चार गुण स्थानों में होती हैं। पीत, पद्म, दोनों लेश्या प्रमतेपर्यन्त सातो गुण स्थानों में होती है।
सितलेश्यायां त्रयोदश भव्ये सर्वाणि अभव्ये मिथ्यात्वं । एकादश चत्वारि अष्टौ क्षायिक त्रये तथान्येषु निजैकम् ॥१६॥
भावार्थ-शुक्ल लेश्या तेरह गुण स्थानों में होती है, ॥ इति लेश्या मार्गणा ॥ भव्य जीव के चौदाहि गुण स्थान होते हैं। अभव्य जीव के पहिला एकहि गुण स्थान होता है । ॥ इति भव्य मार्गणा ॥ क्षायिक सम्यक्त्व, चौथे से चौदह तक ग्यारह गुण २ि२६]