Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 371
________________ शरीर के नव द्वारो से निरन्तर दुगंधी बहती रहती है। कोई पुत्र बिना नित झूरे होय मरै तव रौवै। खोटी सन्तति सो दुख उपजे क्यों प्राणी सुख सोवै ।। पुण्य उदय जिनके तिनके भी नाहिं सदा सुख साता। यह जगबास यथारथ दोखे सबही हैं दुखदाता ।।६।। जो संसार विर्षे सुख होता, तीर्थकर क्यों त्यागे। काहे को शिवसाधन करते. संजमसों अनुरागै ॥ देह अपावन अथिर घिनावन, यामैं सार न कोई। सागर के जलसों शुचि कीजै, तो भी शुद्ध न होई ॥७॥ सात कुधातु भरी मल मूरत चर्म लपेटी सोहै। अंतर देखत या सम जगमें अवर अपावन को है ॥ नवमल द्वार स्त्रवै निशिवासर, नाम लिये घिन आवै। व्याधि उपाधि अनेक जहाँ तहं कौन सुधी सुख पावै ॥८॥ पोषत तो दुख दोष कर अति, सोषत सुख उपजावै । दुर्जन देह स्वभाव बराबर, मूरख प्रीति बढावै ॥ राचन योग्य स्वरूप न याको विरचन जोग सही है। यह तन पाय महातप कीजै यामैं सार यही है ।।९।। भोग बुरे भवरोग बढ़ावे, बरी हैं जग जीके । बेरस होंय विपाक समय अति, सेवत लागें नीके ॥ बज्र अगिन विष से विषधर से, ये अधिक दुखदाई। धर्म रतन के चोर चपल अति, दुर्गतिपंथ सहाई ॥१०॥ मोह उदय यह जीव अज्ञानी, भोग भले कर जाने । ज्यों कोई जन खाय धतूरा, सो सब कंचन मानें ॥ ज्यों ज्यों भोग संजोग मनोहर, मन वांछित जन पावै । तृष्णा नागिन त्यों त्यों डंके, लहर जहर की आवै ॥११॥ [२६७]

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