Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 372
________________ घृणास्पद शरीर का ममत्य छोउफर आत्महित करना चाहिये । मैं चक्रीपद पाय निरंतर भोगे भोग घनेरे । तो भी तनिक भये ना पूरण भोग मनोरथ मेरे । राज समाज महा अघ कारण बैर बढ़ावन हारा । वैश्या सम लक्ष्मी अति चंचल याका कौन पत्यारा ॥१२॥ मोह महा रिपु बैर विचारो जग जिय संकट डारे । घर काराग्रह वनिता बेड़ी परिजन है रखवारे ।। सम्यग्दर्शन ज्ञान चरण तप ये जिय के हितकारी । ये ही सार असार और सव यह चक्री चित धारी ॥१३॥ छोड़े चौदह रत्न नवोनिधि और छोडे सङ्ग साथी। कोड़ि अठारह घोड़े छोड़े चौरासी लख हाथी ॥ इत्यादिक सम्पति बहु तेरी जोरण तृणवत त्यागी। नीति विचार नियोगी सुत को राज्य दियो बड़ भागी ॥१४॥ होइ निशल्य अनेक नृपति संग भूषण वसन उतारे । श्री गुरु चरण धरी जिन मुद्रा पंच महानत धारे । धनि यह समझ सुबुद्धि जगोत्तम धनि यह धीरजधारी। ऐसो सम्पति छोड़ बस बन तिनपद धोक हमारी ॥१५॥ दोहा परिग्रह पोट उतार सव, लीनो चारित पंथ । निज स्वभाव में थिर भये वज्रनाभि निन्य ॥ ॥ इति समाप्त ॥ [२८]

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