Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 380
________________ आशा की नीर से जकड़ा हुआ प्राणी निराफुल नहीं होता। २२. अदर्शन परीषह .. मैं चिरकाल घोर तप कोनों अजहूं ऋद्धि अतिशय नहिं जागे । तप बल सिद्ध होय सब सुनियत सो कछु बात झूठ सी लागे॥ यों कदापि चित में नहि दिन्तत समकित शुद्ध शान्तिरस पागे । सोई साध अदर्शन विजयो ताके दर्शन से अघ भागे ॥ किस कर्म के उदय से कौनसी परीषह होती है। शानावरणी से वोय प्रज्ञा अज्ञान होय एक महामोहते अदर्शन बखानिये । अन्तराय कर्म सेती उपजे अलाभ दुःख सप्त चारित्र मोहनी केवल जानिये । नग्न निषध्यानारीमान सन्मान गारियावना अरति सब ग्यारह ठोक ठानिये। एकादश बाकीरही वेदनी उदय से कहीं बाईस परीषह उदय ऐसे उरआनिये । आडिल्ल छन्द एक बार इन माहिं एक मुनि के कहो। सब उन्नीस उत्कृष्ट उदय आदें सहो ।। आसन शयन विहार दोइ इन माहिं को। शीत उष्ण में एक तीन ये नाहि की ॥ -इति बाईस परीषह समाप्त सिद्ध स्वरूप अविनाशी अविकार परमरस धाम हो । समाधान सर्वज्ञ सहज अभिराम हो। शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनादि अनंत है। जगत शिरोमणि सिद्ध सदा जयवंत है ॥ ध्यान अग्निकरि कर्म कलंक सबही दहे ॥ नित्य निरंजन देवस्वरूपी हो रहे ॥ मायक के आकार ममत्व निवार के । सो परमातम सिद्ध नमू शिर नायके ॥ अविचल ज्ञान प्रकाशते गुण अनन्त की खान । ध्यान धरत शिव पाइये परम सिद्ध भगवान ॥१॥ ॥ इति शुभ भवतु ॥ श्री १०८ आचार्य शान्ति सागराय नमः कृत्वामया चन्द्रसागरं आयेण सम्पूर्ण करिस्यामि २४५५ भाद्रपदमासे कृष्णा ३ । [२६]

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