Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 378
________________ विषयानिलावाओं से रहित निर्विकल्प होकर जीव कर्मों की निनंरा करता है। १०. आसन परीपह गुफा मसान शैल तरु कोटर निवसें जहाँ शुद्ध भू हेरें। परिमित काल रहें निश्चल तन बार-बार आसन नहिं फेरें । मानुष देव अचेतन पशु कृत बैठे विपत आन जब घेरे। ठौर न तजे भजै थिरतापद ते गुरु सदा बसौ उर मेरे ॥ ११. शयन परीपह ने महान् सोने के महलन सुन्दर सेज सोय सुख जोवें। ते अब अचल अङ्ग एकासन कोमल कठिन भूमि पर सोवें। पाहन खण्ड कठोर कांकड़ी गड़त कोर कायर नहिं होवें । ऐसी शयन परीषह जीते ते मुनि कर्म कालिमा घोवें। १२ आक्रोश परीपह जगत जीवयावन्त चराचर सबके हित सबको सुखदानो। तिन्हें देख दुर्वचन कहैं शठ पाखण्डो ठग यह अभिनानी ।। मारो याहि पकड़ पापी को तपसी भेष चोर है छानो। ऐसे कुवचन वाण की वेला क्षमा ढाल औढें मुनि ज्ञानी ॥ १३. बध बन्धन परोषह। निरपराध निर्वर महामुनि तिनको दुष्ट लोग मिल मारें। कोई बँच खम्भ से बांध कोई पावक में परजाः ।। तहां कोप नहिं करें कदाचित पूरब कर्म विपाक विचारें। समरथ होय सहैं बध बन्धन ते गुरु सदा सहाय हमारें। १४. याचना परीषह घोर वीर तप करत तपोधन भये क्षीण सूखी गलबांही। अस्थि चाम अवशेष रहो तन नसां जाल झलके जिस मांहीं । भौषधि असन पान इत्यादिक प्रारण जाउ पर जांचत नांहों। दुर्द्धर अयाचीक प्रत धारै करहिं न मलिन धर्म परछांहीं ॥ १५. अलाभ परीषह एक बार भोजन की बिरियां मौन साध बस्ती में आवें । जो नहिं बने योग भिक्षा विधि तो महन्त मन खेद न लावे ।। ऐसे भ्रमत बहुत दिन बीतें तब तप वृद्धि भावना भावें। यो अलाभ की कठिन परीषह सहें साधु सोही शिव पावे ॥ [२४]

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