Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal
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परम या स्वरप अमृत के समुद्र में अवगाहन करने वाले विरले ही होते हैं ।
अग्नि म्वरूप धप ग्रीषम की ताती वार ज्ञालसो लागे । तप पहाड़ ताप तन उपजे कोप पित्त दाह ज्वर जागे । इत्यादिक गर्मों की वाधा सहै साधु धीरज नहि त्यागे ।
५. दशमशक परीपह वंश मशक माखी तनु कार्ट पीड़ें वन पक्षी बहुतेरे । उसे व्याल विषहारे बिच्छू लगै खजूरे आन घनेरे ॥ सिंघ स्याल शुण्डाल सतावें रीछ रोज दुख देय घनेरे । ऐसे कष्ट सहै समभावन ते मुनिराज हरो अघ मेरे ।
६. नग्न परीपह अन्तर विषय वासना वर्ते बाहिर लोक लाज भय भारी। ताते परम दिगम्बर मुद्रा घर नहिं सकै दोन संसारी ॥ ऐसी दुर्द्धर नग्न परीषह जीतें साधु शील व्रत धारी। निर्विकार बालकवत् निर्भय तिनके पायन धोक हमारी ।।
७. अरति परीपह देश काल को कारण लहिके होत अचन अनेक प्रकारें। तब तहां खिन्न होयें जगवासी कलवलाय थिरतापन छारे । ऐसी अरति परीषह उपजत तहाँ धीर धीरज उर धारें। ऐसे साधुन को उर अन्तर वसौ निरन्तर नाम हमारे ॥
८. स्त्री परीपह जे प्रधान केहरि को पकड़ें पन्नग पकड़ पान से चम्पत । जिनकी तनक देख भी बोको कोटिन सूर दोनता जम्पत ॥ ऐसे पुरुष पहाड़ उठावन प्रलय पवन त्रिय वेद पयम्पत । घन्य-धन्य ते साधु साहसी मन सुमेरु जिनको नहिं कम्पत ।।
६. च- परोपह चार हाप परिमाण निरख पथ चलत दृष्टि इत उत नहिं तानें। कोमल पांव कठिन परती पर घरत धीर बाधा नहिं माने । नाग तुरङ्ग पालकी चढ़ते ते सर्वादि याद नहिं आने । यों मुनिराज सह चर्या दुख तब दृढ़ फर्म कुलाचल भाने ।
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