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मात्मग विषय कपायों को जीतना नर पर्याय फा फल है।
१६. रोग परीपह बात पित्त कफ श्रोणित चारों ये जब घटें बढ़े तन माहीं ।
रोग सयोग शोक जब उपजत जगत जीव कायर हो जाहीं॥ ऐसी व्याधि वेदना दारुण सहै सूर उपचार न चाहीं । आतमलीन विरक्त देह से जैन यती निज नेम निवाहीं॥
१७ तृण स्पर्ण परीषह सूखे तृण और तीक्षण कांटे कठिन कांकरी पाय विदार। रज उड़े आन पर लोचन में तोर फांस तनु पोर पिथारै ।। तापर पर सहाय नहिं वांछत अपने करसों काढ़ न डारें। यो तृरण परस परीषह विजयी ते गुरु भव भव शरण हमारे ॥
१८ मल परीपह यावज्जीवन जल न्हौन तजो नित नग्न रूप बन थान खड़े हैं। चले पसेव धूप की विरियां उड़त धूल सब अंग भरे है । मलिन देह को देख महा मुनि मलिन भाव उर नाहि करे हैं । यो मल जनित परीषह जीत तिनहिं पाय हम सीस धरे हैं ।
१६ सत्कार तिरस्कार परीपह से महान विद्या निधि विजयी चिर तपसी गुण अतुल भरे हैं । तिनकी विनय वचन सों अथवा उठ प्रणाम जन नाहिं करे हैं । तो मुनि तहां खेद नहिं मानें उर मलीनता भाव हरे हैं । ऐसे परम साधु के अहनिशि हाथ जोड़ हम पांय परे हैं।
२०. प्रज्ञा परीपह सकं छन्द व्याकरण कलानिधि आगम अलंकार पढ़ जाने । जाको सुमति देख परवादी विलखे होंय लाख उर आने ॥ जसे सुनत नाद केहरि को बन गयन्द भाजत भय भाने । ऐसो महाबुद्धि के भाजन ये मुनीश मद रञ्च न ठानें ।।
२१. अज्ञान परीपह। सावधान वर्ते निशि वासर संयम शूर परम वैरागी। पालत गुप्ति गये दीरघ दिन सकल संङ्ग ममता पर त्यागी ॥ अवधि ज्ञान अथवा मन पर्यय केवल ऋद्धि न आजहूं जागी। यो विकल्प नहि करें तपोधन सो अज्ञान विजयी बड़ भागी ।।
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