Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 369
________________ समस्त गुणो का पोषक ब्रह्मचर्य है। M m धन धरती जो मुख सों मांगे सो सब दे संतोष । छहों काय के प्राणी ऊपर, करुणा भाव विशेष ॥ ऊंच नीच घर बैठ जगह इक, कुछ भोजन कुछ पय ले। दूधाधारी क्रम-क्रम तजि के, छाछ अहार पहेल ॥६॥ छाछ त्यागि के पानी राखे, पानी तजि संथारा।। भूमि मांहि थिर आसन मांडे, साधर्मी ढिंग प्यारा ॥ जब तुम जानो यह न जप है, तब जिनवाणी पढ़िये । यों कहि मोन लियो सन्यासो, पंच परम पद गहिये ॥७॥ चौ आराधन मन में ध्याव, बारह भावन भाव । दश लक्षण मन धर्म विचार, रत्नत्रय मन ल्यावै ॥ पैतिस सोलह षटपन चारों, दुइ इक वरन विचारे। ___ काया तेरी दुःख की ढेरी, ज्ञानमई तू सारे ॥६॥ अजर अमर निज गुण सों पूरे, परमानन्द सुभाव । आनन्द कन्द चिदानन्द साहब, तीन जगतपति ध्यावे ॥ क्षुधा तुषादिक होइ परीषह, सहै भाव सम राखे । अतीचार पांचो सब त्याग, ज्ञान सुधारस चाखै ॥९॥ हाड मांस सब सूखि जाय जब धरम लोन तन त्यागे। अद्भुत पुण्य उपाय सुरग में, सेज उठ ज्यों जाग । तह ते आवै शिवपद पावै, विलसे सुक्ख अनन्तो । 'द्यानत' यह गति होय हमारी, जैन धरम जयवन्तो ॥१०॥ ordiku 61 [२६५

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