Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 359
________________ सम्यक् ज्ञान समस्त तत्वों को प्रकाश करने के लिए दीपक के समान है। ॐ श्री समाधि मरण (पं० सूरजचन्द्र जी कृत) -:नरेन्द्र छन्दःबन्दो श्री अर्हन्त परम गुरु, जो सबको सुखदाई। इस जग में दुःख जो मैं भुगते, सो तुम जानो राई ॥ अब मैं अरज करूं नित तुमसे, कर समाधि उर माहीं। अन्त समय में यह वर मांगे, सो दीजे जगराई ॥१॥ भव भव में तन धार नये मैं, भव भव शुभ संग पायो । भव भव में नृप ऋद्धि लई मैं, मात पिता सुत थायो॥ भव भव में तन पुरुष तनो धर, नारीहूं तन लीनो। भव भव में मैं भयो नपुंसक, आतमगुण नहिं चीनो ॥२॥ भव भव में सुर पदवी पाई, ताके सुख अति भोगे। भव भव में गति नरकतनी धर, दुख पायो विधयोगे ।। भव भव में तियंच योनि धर, पायो दुख अति भारी। भव भव में साधर्मी जनको, संग मिलो हितकारी ॥३॥ भव भव में जिन पूजन कीनी, दान सुपात्रहिं दोनो। भव भव में मैं समवसरण में, देखो जिन गुण भीनो ॥ एती वस्तु मिली भव भव में, सम्यक् गुण नहिं पायो । ना समाधियुत मरण करा मैं, ताते जग भरमायो ॥४॥ काल अनादि भयो जग भ्रमते, सदा कुमरहिं कीनो। एक बारहूँ सम्यकयुत मैं, निज आतम नहिं चीनो ॥ जो निज परको ज्ञान होय तो, मरण समय दुखकाई । देह विनाशी मैं निजभाशी, जोति स्वरूप सदाई ॥५॥

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