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गुरु सेवा से काम की शुद्धि होती है।
मृत्युराज उपकारी जिय को, तन सों तोहि छुड़ावे । नातर या तन बंदीग्रह में, परयो परचो बिललावे ।। पुदगल के परमाणू मिलके, पिंडरूप तन भासी।
याही मूरत मैं अमूरतो, ज्ञान जोति गुण खासी ॥१८॥ रोग शोक आदिक जो वेदन, ते सब पुदगल लारे। मैं तो चेतन व्याधि विना नित, हैं सो भाव हमारे ॥ या तन सों इस क्षेत्र सम्बन्धी, कारण आन बन्यो है।
खान पान दे याको पोष्यो, अब समभाव ठन्यो है ॥१०॥
मिथ्या दर्शन आत्म ज्ञान विन, यह तन अपनो जानो। इन्द्री भोग गिने सुख मैंने, आपो नाहिं पिछानो ।। तन विनशन ते नाश जानि निज, यह अयान दुखदाई । कुटुम आदि को अपनो जानो, भूल अनादी छाई ॥२०॥
अब निज भेद यथारथ समझो, मैं हूँ ज्योति स्वरूपी । उपजे विनशे सो यह पुदगल, जानो याको रूपी ॥
इष्टऽनिष्ट जेते सुख दुख हैं, सो सब पुदगल सागे । ____ मैं जब अपनो रूप विचारो, तब वे सब दुख भागे ॥२१॥
बिन समता तनऽनन्त घरे मैं, तिनमें ये दुख पायो। शस्त्रघात तेऽनन्त बार मर, नाना योनि भ्रमायो ।
बारऽनन्त हो अग्निमाहि जर, मूवो सुमति न लायो। ', सिंह व्याघा अहिनन्त बार मुझ, नाना दुःख दिखायो ॥२२॥
बिन समाधि ये दुःख लहै मैं, अब उर समता आई। मृत्युराज को भय नहिं मानो, देव तन सुखदाई ।। यातें जब लग मृत्यु न आवे, तब लग जप तप कीजै ।
जप तप बिन इस जग के माहीं, कोई भी ना सीजै ॥२३॥ [२५८]