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जिनधर्म से ग्लानि नहीं करना निर्जुगुप्सा है । चतुर्दश भव्याभव्ययोः द्वौ एकः क्षायिकादित्रिषु मिश्र। अपूर्णाः सप्त पूर्णः संज्ञी एकः चतुर्दश च द्वयोः क्रमेण ॥१०॥
भावार्थ-भव्य जीव में-अभव्य जीव में चौदह जीव ससास हैं। क्षायिक-उपशमवेदक सम्यक्त्व में पंचेन्द्रि संझि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ ऐसे दो हैं। मिश्र सम्यक्त्व में-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ होता है। मिश्र में जन्म मरण नहिं करके अपर्याप्त का अभाव जानो । सासादनसम्यक्त्व में-एकेन्द्रि-द्वि-त्रि-चतु-पंचेन्द्रि-संज्ञि-असंजि-सर्व अप
प्ति ऐसे ७ तथा-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त एक-कुल ८ जानो। मिथ्यात्व सम्यक्त्व मेंएकेन्द्रियादि चौदह जीव समास होते हैं ।
संज्ञयसंज्ञिनोः द्वौ च आहारानहारकयोः विज्ञयाः।
जीवसमासाश्चतुर्दश अष्टावेवजिनः निर्दिष्टाः ॥११॥ भावार्थ-संज्ञीजीव में-पंचेन्द्रि संज्ञि पर्याप्त १ अपर्याप्त १ दो है। असंज्ञि जीव मैं-पर्याप्त-अपर्याप्त दो हैं । आहारक में चौदह जीव समास है। अनाहारक में आठ हैं वे ऐसे-एकेन्द्रि-द्वि-त्रि-चतु-पंचेन्द्रि-संज्ञि-असंज्ञि सातो अपर्याप्त-एकः संज्ञि पंचे
न्द्रिपयाप्तक ८ आठ है । क्वचिदविग्रहगति अपेक्षा-क्वचित केवलिसमुद्घात अपेक्षा से उक्तंच-विग्रहगतिमापन्नाः समुद्धातकेवल्ययोगिजिनाः ।। सिद्धाश्चानाहारकाः शेषाः आहारका जीवः ॥१॥
॥ इति चतुर्दशमार्गणासुजीवसमासाश्चतुर्दश संक्षेपेण कथिताः ।। अथ मार्गणामु गुणस्थाननिरूपणार्थ
नारकतिर्यनरामरगतिषु चतुःपंच चतुर्दश चत्वारि ।
एकद्वित्रिचतुरक्षेषु च मिथ्यात्वं द्वितीयं चोपपादे ॥१२॥ भावार्थ-नरक-तियंच-मनुष्य-देव-चारो गति में क्रम से चार-पांच-चौदह-चार-गुण स्थान यथा संभव होते हैं । एकेन्द्रि में-द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रि में-एक मिथ्यात्व गुण स्थान होता है। एकेन्द्रि से चतु इन्द्रि तक उत्पत्तिकाल में अपर्याप्त समय में सासादन गुण स्थान होता है कथंचित । [२२४]