Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

View full book text
Previous | Next

Page 340
________________ सम्यक्दृष्टि के हृदय में समता स्पो लक्ष्मी निवास करती है। तथा कषाय पंचविस अनन्तानुबंधि-अप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलन-क्रोध ४ मान ४ माया ४ लोभ ४ हास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा-स्त्री-पुरुप-नपुंसक-नी इति । योग पंद्रह-मन वचन औदारिक ७ काय योग इति ॥ ये आत्रव कर्म बन्ध के कारण होते है। आहारौदारिकद्विकस्त्रीपुहिना नरके एकपंचाशत । आहारक वैक्रियिकतिकोनाः त्रिपंचाशन तिरश्चि ॥६॥ भावार्थ-नरक गति में-आहारक २ ओदारिक २ स्त्री-पुं-बेद २-ये छह छोड़ कर इक्यावन आश्रव है। तिर्यव गति में-आहारक २ वैक्रियक दो २ यं चार छोड़ बाको के ओपन होते हैं। पंचपचाशत् वैक्रियिकतिकोना मनुजेषु भवन्ति । द्विपंचाशत् षंढाहारौदारिकविकहींनाः सुरगत्याम् ॥१०॥ भावार्थ-मनुष्य गति में वैक्रियक दो रहित पचपन प्रत्यय होते हैं। देव गति मेंनपुंसक वेद-आहारक दो-औदारिक दो-ये पाँच छोड़ बावन प्रत्यय होते है ।। इति गति मार्गणा ॥ मनोरसन चतुष्कस्त्रीपुरुषा हारक क्रियिकयुगः । एकाचे मनोवागष्टयोगैहींना अष्टात्रिंशत् ॥५१॥ भावार्थ-एकेन्द्रि जीव के ३६ प्रत्यय है-शेष मन १ रसनादि ४ स्त्री-पुरुष वेद २ आहारक २ वैक्रियक २ सत्यादि मन वचन ८ ये कंदर १६ उन्नीस नहीं होते। एते च अन्तभाषारसनायुक्ता प्राण चक्षुः संयुक्ताः । चत्वारिंशत् एकद्विचत्वारिंशत् क्रमेण विकलेषु विज्ञयाः ॥५२॥ भावार्थ-द्वि-त्रि-चतुः इन्द्रियों-एकेन्द्रि के कहे ३६ तथा अनुभय वचन-रसना २ ज्यादा ४० द्वि० के० । एक घ्राण ज्यादा ४१ त्रिइन्द्रि के । एक चक्षु ज्यादा ४२ चार इन्द्रि के प्रत्यय हैं। [२३६]

Loading...

Page Navigation
1 ... 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381