Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 339
________________ मिथ्यादर्शन रूपी विष से दूषित ज्ञान और चारित्र प्रशंसनीय नहीं है । Mw योग १ ये दश हैं। प्रमत्त में-ग्यारह वे यह आठ मन वचन-औदारिक १ आहारक दोनों देशविरत-अप्रमत्त-अपूर्वकरण-अनिवृत्तकरणकसूक्ष्म साम्पराय-उपशान्तकषाय-क्षीण ११ १२ कषाय इन सात गुण स्थानों में-आठ मन वचन योग-एक औदारिक काय योग ये नौ होते हैं। संयोग केदलि में-सत्य-अनुभयमन २ सत्य-अनुभय वचन २ औदारिक-मिश्र २ कार्मण १ ऐसे सात हैं । अयोगि गुण स्थान में योग नहीं ॥ इति ॥ १४ चौदह गुण स्थानों मे-बारह उपयोग वर्णनःप्रथमद्विके पंच पंचकं मिश्रा मि ततो द्विके षट्कं । सप्तोपयोगाः सप्तसु द्वौ योग्य योगिगुणस्थाने ॥४७॥ भावार्थ-मिथ्यात्व-सासादन में-कुमति-कुश्रुत-विभंग-चक्षु-अचक्षु ये पाँच उपयोग है। तीसरे मिश्र में-मति-श्रुति-अवधि मिश्र ज्ञान ३ चक्षु अचक्षु अवधि दर्शन मिश्र ३ ये छह हैं । चौथे-पाँचवें में तीन पहिले सुज्ञान-तीन पहिले दर्शन ये छह है । छट्टे से बारहवे तक सात गुण स्थानों में -चार पहिले सुज्ञान-तीन पहिले दर्शन ये सात होते तेरह-चौदह दो स्थानों में केवल-ज्ञान-केवल दर्शन ये दो होते है । ॥ इति समासे उपयोगाः॥ अथ चतुर्दश मार्गणा में-सप्त पंचाश प्रत्ययाः कथ्यन्तेमिथ्यात्वमविरतयस्तथाकषाया योगाश्च प्रत्ययभेदाः । पंच द्वादश बन्धहेतवः पंचविंशतिः पंचदश भवन्ति ॥४८॥ भावार्थ मिथ्यात्वपंचकं मिथ्यात्योदयेन मिथ्यात्वं अश्रद्धानं चत्वार्थानां । एकान्तं विपरीतं विनयं संशयितम ज्ञानमिति ॥१॥ अविरतः द्वादशः पर्विन्द्रियेपु अविरतिः पट्जीवे तथा चविरतिश्चैव।। इन्द्रिय प्राणासयमा द्वादश भवन्तीत्ति निर्दीष्टं ॥२॥ २३५]

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