Book Title: Chandrasagar Smruti Granth
Author(s): Suparshvamati Mataji, Jinendra Prakash Jain
Publisher: Mishrimal Bakliwal

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Page 341
________________ सम्यग्दर्शन, फर्म हमी इंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान है। पंचेन्द्रिये त्रसे तथा सर्वे एकाक्षोक्ता अष्टात्रिंशत् । स्थावरपंचके गणिता गणनाथैः प्रत्यया नियमात् ॥५॥ भावार्थ-पंचेन्द्रि नाना जीवों के अपेक्षा सर्व प्रत्यय होते हैं। इति इन्द्रिय मार्गणा ॥ तथा त्रसकाय में नाना जीव अपेक्षा से सत्तावन आश्रव होते हैं । स्थावर पाँचों एकेन्द्रि के ३८ प्रत्यय हैं इस प्रकार गणधर भगवान ने कहा है ॥ इति काय मार्गणा ॥ आहारकद्विकं हृत्वा अन्येषु योगेषु निजं निजं घृत्वा । योगं ते त्रिचत्वारिंशत् ज्ञातव्या अन्ययोगोनाः ॥५४॥ भावार्थ-आहारक दोनों छोड़ शेष तेरह योगों में अपने-अपने योगों को लेकर ४३ आश्रव होते हैं । वे ऐसे पाँच मि० ५ अविरती १२ कषाय २५ एक काय १ है। संज्वलना अषण्डस्त्रियो भवन्ति तथा नोकषायनिजयोगाः। द्वादश आहारकयुगे आहारकोभयपरिहीनाः ॥५५॥ भावार्थ-आहारक काय-आहारक मिश्रकाय में संज्वलन क्रोध-मान-माया-लोभहास्य-रति-अरति-शोक-भय-जुगुप्सा-पुरुष वेद-स्वकाय योग-ऐसे बारह होते हैं ॥ इति योग मार्गणा में आश्रवः ॥ स्त्रीनपुसकवेदे सर्वे पुरुषे च क्रोध प्रभृतिषु । निजरहितेतर द्वादश कपायहीना हि पंच चत्वारिंशत् ॥५६॥ भावार्थ-स्त्री वेद में आहारक दोय अन्य दो वेद ४ रहित ५३-नपुंसक वेद में आहारक दोय अन्य दो वेद-४ रहित ५३ पुरुष वेद में अन्य दो वेद रहित ५५ आश्रव होते हैं । क्रोध-मान-माया-लोभ में अपने कषाय सहित अन्य तीन चौकड़ी के बारह कषाय रहित ४५ आश्रव होते हैं । इति कषाय मार्गणा ॥ कुमतिद्विके पंचपंचाशत् आहारकद्विकोनाकर्ममिश्रोना। द्वापंचाशत् विभंगे मिथ्यात्वान पंच चतुहींनाः ॥५७॥ (२३७]

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