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मनुज तन पाकर विषय विष खाकर नहीं मरना चाहिये।
रखे, पिछाडी ग्रीवा के केश से भी चोटी पर्यन्त १२ भाग रखे ॥१५॥
शंखौ वेदी गुलायामौ भ्रूलेते चतुरंगले ।।
मध्यास्थूले कृशाने च स्वारोपित धनुनिभे ॥१६॥ अर्थ-मस्तक के दोउ पार्श्व में शंख नाम २ हाड ४ भाग चौड़ा रखे । भंवारे ४ भाग
लंबे, मध्य में मोटा दोउ अग्न में कृश चढ़ाये हुये धनुष के आकार शोभनीक करै ॥१६॥
भवारा और नेत्र का कथन पादांगुलं प्रविस्तीर्ण, स्वार्धा गुलम थोत्तरं ।
भ्रू चाप मध्य केशांत, स्यांतरं द्वयं गुलं मत्तं ॥१७॥ अर्थ-भवारा डेढ़ भाग चौडा आदि में पाव भाग चौड़ा अंत में रखे बाकी शोभनीक बनावै दोउ भंवारा के मध्य में केशनिका अन्तर २ भाग रखे ॥१७॥
कर वीर युतायामस्त्रयंगुलो नेत्रयो भवेत् ।
केवलो द्वयंगुलः कुर्यान्नेत्रे पद्मदला कृती ॥१८॥ अर्थ-नेत्रनि कोलंबाई सफेदी सहित ३ भाग कर तथा केवल सफेदी का प्रमाण द्वयंगुल अर्थात २ भाग कर दोनू हो नेत्र कवल पुष्प के दल समान मनोहर कर ॥१८॥
नेत्र मध्ये गेलं व्यास स्त्रिभागः कृष्न तारिका ।।
नेत्रांधः पक्ष्मणीयावद्भूमध्यं व्यंगुलं मतं ॥१६॥ अर्थ--नेत्रनि की सफेदी के मध्य में श्याम तारा १ भाग रखै इसके बीच तारिका
जो छोटी कनिका गोल श्याम १ भाग का तीसरा हिस्सा चौडी रखे भ्रुकुटी के मध्य से नीचली बांफणी तक ३ भाग चौड़े नेत्र रखे ॥१६॥
अन्तर नासिका मूले नेत्रयोदयं गुलं मतं ॥
उत्तरोष्ठोपिता वांस्तु तथैकांगुल मुछितः ॥२०॥ अर्थ-नासिका के मूल में दोउ नेत्रनि के बीच २ भाग अन्तर रखै। ऊपर का होठ २ भाग लंबा १ भाग ऊंचा रखै ॥२०॥
मुखस्य विवरं तिर्यग् निर्दिष्टं चतुरंगुलं ।।
अर्धा गुलाय तागो जी निभगांगुल विस्तृता ॥२१॥ [१५४]