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पित्त ज्वर वाले को मधुर दूध कडवा लगता है।
मानं प्रमाण मुन्मानं चित्रलेप शिलादिषु ।
प्रत्यंग परिणा होर्द्ध यथा संख्य मुदीरितम् ॥४॥ अर्थ-जिनेन्द्र की प्रतिमा चित्र को लेपको शिला की धातु की वणावै उसके अंग अंग
की गुलाई तथा ऊंचाई तथा चौड़ाई यथा क्रम कहते हैं । उनका मान प्रमाण उन्मान भी कहते हैं ॥४॥ उक्त च ॥
न मृत्तिका काष्ठ विलेप नादि, जातं जिनेन्द्र ः प्रति पूज्य मुक्तम् ॥५॥ अर्थ-मृत्तिका, काष्ठ विलेपनादि की प्रतिमा पूज्य नहीं ॥५॥
कक्षादि रोम होनांगं श्मश्रु रेखा विवर्जितं ।।
ऊर्द्ध प्रलंबकं दत्वा समात्पंतंच धारयेत् ॥६॥ अर्थ-कांख आदि स्थानों के रोमों करि रहित तथा मूंछ डाढी के केश रहित प्रारम्भ
से अंत तक प्रलंबक अर्थात ऊंचाई को लिये हुये प्रतिबिंब वरणावै ॥६॥
उक्तंच। वृद्धत्व बाल्य रहितांग मुपेत शांति, श्री वृक्ष भूषित् हृदं नख केश हीनं ॥ सद्धानु चित्र हृषदां समसूत्र भाग, वैराग्य भूषित गुणं तपसि प्रशक्त ॥७॥ अर्थ-वृद्ध बाल अंग करके रहित शान्त मुद्रा श्री वृक्ष करके हिरदै शोभायमान नख
केश रहित धातु चित्र विचित्र पाषाण वैराग्य करके भूषित तपश्चरण में तत्पर जिन बिम्ब वणावै ॥७॥
तालं मुख वितस्तिः स्यादेकार्थ द्वादशांगुलं ।
तेन मानेन तद् बिबं नवधा प्रविकल्पयेत् ।।।। अर्थ-ताल मुख वितस्ति द्वादशांगुल ये शब्द एकार्थी हैं, इस मान करिये जिन बिम्ब ६ भागों में कल्पना करण ॥८॥
१०८ भाग का कथन ताल मात्रं मुखं तन ग्रीवाश्चतुरंगुला।
कंठतो हृदयं यावदं तरं द्वादशां गुलम् ॥६॥ अर्थ-तहां १०८ भाग में १२ भाग मुख रखें ४ भाग ग्रीवा रखे, ग्रीवासों हृदय पर्यत बारह भाग रखे ॥९॥
ताल मात्रं ततो नाभि नाभि मेंद्रांतरं मुखं ।
मेद्र जान्वंतरंतज्ञ हस्त मात्रं प्रकीर्तितम् ॥१०॥ [१५२]