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विषयाभिलाषा रूपी अग्नि की दाह से मूच्छित मन आत्म ध्यान रूपी अमृत के सिंचन से शान्त हो जाते हैं।
सैतालीस घातियाकि वेसठ प्रकृति सर्वनाम भये तीर्थकर ज्ञानमई जोत है ॥ देवनिके देव अरहंत हैं परम पूज्य तीन होको बिब पूजि होहि ऊंच गोत है ॥७०॥
॥ गुण स्थान वर्णन स्तुति ॥ बंदी नेमि जिनंद, नमो चोबीस जिनेश्वर, महावीर वंदामि, बंदौ सब सिद्ध महेश्वर ।। शुद्ध जीव प्रणमामि, पंच पद प्रणमो सुख अति । गोमट सार नमामि नेमिचंद आचार जनिति ॥ जिन, सिद्ध शुद्ध अकलंक वर, गुण मणि भूषण उदयधर। कहूं वीस परूपणा भवसौ यह मंगल, सब विधन हर ॥७१॥
॥१४ मार्गणा ॥ जीव समास, परजापत, मनवचश्वास, इंद्रि काय मांहि आड गति में बखानिये ॥ क्रोधमांहि भय अरु वेदमाहि, मैथुन है ज्ञानमाहि दर्श दर्शमाहि जानिये ॥ कामबल, जोगमाहि इंद्रि पांच प्राण माहि आहारक, परिग्रह, लोभ में बखानिये ॥ पांचौ परूपणा इह चौवह में गभित है, गुण ठाण मारगणा दोय भेद मानिये ॥७२॥
॥जिवसमास ॥ भू जल, पावक, वाड, नीत, ईतर साधारण । सूक्ष्म, वादर, करत होत द्वादश उच्चारण । सुप्रतिष्ठ अप्रतिष्ठ मिलि चौदे परवानो ।' परज अपरज, अलब्ध, गुणीब्यालीस बखानो ॥ गुणवे,ते, चो, इंद्री,त्रिविधि,सर्व एक पच्यास भनी। मन रहित तिहुं भेदसू सत्तावन घरि दया मनी ॥७३॥
॥१८ जिव समास ॥ इक्कावन थान जान थावर विकल त्रयक, गर्भज दोय तीन सम्मूर्छन गाये हैं । पांच सैनि औ असैनि जल, थल, नभचर, भोग भूमि भूचर खेचर दो दो पाये हैं। दो दो नारकि हैं देव, नवविध मनुष हैं, चव भौग भू म्लेछ बताये हैं ।। दोय दोय दोय तीन आरजमें राजत हैं, अठाणवै दयाकर, साधुते कहाये हैं ॥७४॥
॥५३ भाव ॥ चौतिस बत्तिस तेतिस छत्तिस इकतिस इकतिस जान ॥ [१८६]