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संसारी भोगों को वांक्षा नहीं करना नि.कालित अंग है।
* सिद्धान्त सारः के (श्री जिनेन्द्राचार्य प्रणीतः)
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जीव गुण स्थान संज्ञा पर्याप्ति प्रमाण मार्गणा नवोनान् । सिद्धान्तसारमिदानी भणामि सिद्धान् नमस्कृत्य ॥१॥
भावार्थ-चतुर्दश जोव समास, चतुर्दश गुणस्थान, चार संज्ञा, षट् पर्याप्ति, दश द्रव्य प्राण, १४ मार्गणा, नवशेषः का वर्णन, सिद्ध परमात्मा को नमस्कार कर इस सिद्धान्त सार ग्रन्थ को कहते हैं ॥१॥
सिद्धानां सिद्धगतिः दर्शनं ज्ञानं च केवलं क्षायिक।
सम्यक्त्वमनाहारकं शेषाः संसारिणि जीवे ॥२॥ भावार्थ-सिद्ध परमात्मा के (१) सिद्ध गतिः (२) दंसणः (३) ज्ञानः (४) क्षायिक सम्यक्त्व (५) अनाहारकत्वः यह पाँच मार्गणा है शेष नव संसारी जीवों में सर्वत्र देखो। जीवगुणान् तथा योगान् सप्रत्ययान मार्गणासु उपयोगान् । जीवगुणेष्वपि योगान् उपयोगान् प्रत्ययान वक्ष्ये ॥३॥
भावार्थ-सर्व ग्रन्थ में १४ मार्गणा में १४ जीव समासों का १४ गुण स्थानों में वर्णन है-ति आदि १४ मार्गणा में १५ योग का ५७ आश्रवों का १२ उपयोगों को तथा १४ गुण स्थानों में १५ उपयोगों का तथा जीव समासादि में सर्व प्रत्यय उपयोगों का वर्णन करते हैं। त्रिगतिषु संज्ञियुगलं चतुर्दशतिर्यक्षु द्वौ विकलेषु । एकपंचाक्षेऽपि च चत्वारः पृथिवीपंचके चत्वारः॥४॥ भावार्थ-नरक १ मनुष्य १ देवगति १ ये तीनो में पंचेन्द्रि संज्ञि १ पर्याप्त २
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