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देह-रूपी-गेह का नेह प्रलय का मेह है।
णट्ट कम्मदेहो लोया लोयस्स जाणओ दहा ॥
पुरिसायारो अप्पा सिद्धो झाएह लोयसिह रत्थो ॥५१॥ गाथार्थः- नष्ट हो गया है अष्टकर्म रूप देह जिसके, लोकाकाश तथा अलोकाकाश का जानने देखने वाला, पुरुष के आकार का धारक- और लोक के शिखर पर विराजमान ऐसा जो आत्मा है वह सिद्ध परमेष्टी है इस कारण तुम उसका ध्यान करो ॥५१॥
दसणणारण पहाणे वौरिय चारित्त वरत वायारे ॥
अप्पं परं च जुंजइ सो आयरिओ मुरणी झेओ ॥५२॥ गाथार्थः- दर्शनाचार १ ज्ञानाचार २ वीर्याचार ३ चारित्राचार ४ और तपश्चचरणाचार ५ इन पांचों आचारों में जो आप भी तत्पर होते है और अन्य शिष्यों को भी लगाते हैं ऐसे आचार्य मुनि ध्यान करने योग्य है ॥५२॥
जो रयणत्तय जुत्तो णिच्चं धम्मो वदेसणे जिरदो ॥
सो उवज्झाओ अप्पा जदिवर वसहो णमो तस्स ॥५३॥ गाथार्थ:- जो सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्ररूप रत्नत्रय से सहित हैं, निरन्तर धर्म का उपदेश देने में तत्पर है, वह आत्मा मुनीश्वरों में प्रधान उपाध्याय परमेष्ठी कहलाता है । इसलिये उसके अर्थ मैं नमस्कार करता हूं ॥५३॥
दसणणाण समग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्तं ॥
साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ॥५४॥ गाथार्थ:- जो दर्शन और ज्ञान से पूर्ण, मोक्ष का मार्ग भूत, और सदाशुद्ध ऐसे चारित्र को प्रकट रूप से साधते है वे मुनि साधु परमेष्ठी हैं उनके अर्थ मेरा नमस्कार हो ॥५४॥
जं किचिवि चितंतो गिरीहवित्ती हवे जदा साहू ॥
लणय एयत्तं तदाहु तं तस्स णिच्छयं झाण ॥५५॥ गाथा भावार्थ:- ध्येय पदार्थ में एकाग्र चित्र होकर जिस किसी पदार्थ को ध्यावता हुआ- साधु जब निस्पृह वृत्ति (सब प्रकार की इच्छाओं से रहित) होता है उस समय वह उसका ध्यान निश्चय ध्यान है ऐता आचार्य कहते है ॥५५॥
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