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जिसके वचन में मधुरता है उसका कोई शत्रु नहीं है।
समणा अमरणा गेया, पंचिदिय णिम्मरणा परे सव्वे ।
बादरसुहमेइंन्दी, सन्वे पज्जत्त इदरा य ॥१२॥ गाथा भावार्थः-पंचेन्द्रिय जीव संज्ञी और असंज्ञी ऐसे दो प्रकार के जानने चाहिये और दो इन्द्रिय, ते इन्द्रिय चौइंद्रिय ये सब मनरहित(असंज्ञो)है एकेन्द्रिय बादर और सूक्ष्म दो प्रकार के हैं और ये पूर्वोक्त सातों पर्याप्त तथा अपर्याप्त है, एसे१४ जीव समास हैं ॥१२॥
मग्गणगुणठाणेहि य, चउदसहि हवंति तह असुद्धणया।
विण्णेया संसारी, सव्वे सुद्धा हु सुद्धणया ॥१३॥ गाथा भावार्थ:-संसारी जीव अशुद्ध नय से चौदह मार्गरणा स्थानों से तथा चौदह गुण स्थानों से चौदह चौदह प्रकार के होते हैं औरशुद्ध नय से तो सब संसारी जीव शुद्ध हो है ॥१३॥
णिक्कम्मा अढगुणा, किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा।
लोयग्गठिदा णिच्चा, उप्पादवएहि संजुत्ता ॥१४॥ जो जीव ज्ञानावरणावि आठ कर्मो से रहित हैं, सम्यक्त्व आदि आठ गुणों के धारक है तथा अन्तिम शरीर से कुछ कम हैं वे सिद्ध है और उर्ध्वगमन स्वभाव से लोक के अग्रभाग में स्थित है, नित्य है तथा उत्पाद और व्यय इन दोनों से युक्त है॥१४॥
अज्जीवो पुण णेओ, पुग्गल धम्मो अधम्म आयासं ।
कालो पुग्गल मुत्तो, रूवादिगुणो अमुत्ति सेसा हु ॥१५॥ गाथार्थः-और पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश तथा काल इन पांचों को अजीव द्रव्य जानना चाहिये इनमें पुद्गल तो मूर्तिमान् है क्योंकि, रूप आदि गुणों का धारक है, और शेष (बाकी) के चारों अमूर्त है ॥१५॥
सद्दो बन्धो सुहुमो, थूलो संगण भेद तम छाया।
उज्जोदादवसहिया, पुग्गलदव्वस्स पज्जाया ॥१६॥ • गाथार्थः-शब्द, बन्ध, सूक्ष्म, स्थूल, संस्थान, भेद, तम, छाया, उद्योत और आतप इन करके सहित जो है वे सब पुद्गल द्रव्य के पर्याय है ॥१६॥
गइपरिणयाण धम्मो, पुग्गलजीवाण गमणसहयारी। तोयं जह मच्छाणं, अच्छंताणेव सो णेई ॥१७॥
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