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दुराधार स्वर्ग के द्वार को बन्द करने की अर्गला है।
MARATSWASTIMATED श्रीमन्नेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेव विरचितः
बृहद्रव्य संग्रहः
जीवम जीवं दव्वं जिणवर वसहेण जेण णिद्दिठ्ठं ।
देविद विद वंदं वंदे त सव्वदा सिरसा ॥१॥ गाथा भावार्थ--मै (नेमिचन्द्र) जिस जिनवरों में प्रधान ने जीव और अजीव द्रव्य का कथन किया, उस देवेन्द्रादिकों के समूह से वंदित तीर्थकर परम देव को सदा मस्तक से नमस्कार करता हूं ॥१॥
जीवो उव ओगमओ अमुत्ति कत्ता सदेह परिमाणो।
भोत्ता संसारत्थो सिद्धो सो विस्स सोड्ढगई ॥२॥ अर्थ-जो उपयोग मय है, अमूर्त है, कर्ता है, निज शरीर के बराबर है, भोक्ता है, संसार में स्थित है, सिद्ध है और स्वभाव से ऊवं गमन करने वाला है, वह जीव है।
तिक्काले चदुपाणा इंदिय बल माउ आण पाणो य ।
ववहारा सो जीवो णिच्छयणयदो दु चेदणा जस्स ॥३॥ अर्थ--तीन काल में इन्द्रिय, बल, आयु, और आनपान इन चारों प्राणों को जो धारण करता है वह व्यवहार नय से जीव है और निश्चय नय से जिसके चेतना है वही जीव है ॥३॥
उनओगो दुवियप्पो दंसणणाणं च दंसणं च दुधा।
चक्खु अचक्खू ओही दसणमध केवल णेयं ॥४॥ गाथार्थ--दर्शन और ज्ञान इन भेदों से उपयोग दो प्रकार का है। उनमें चक्षु दर्शन, अचक्षु दर्शन, अवधि दर्शन और केवल दर्शन इन भेदों से दर्शनोपयोग चार प्रकार का जानना चाहिये ॥४॥
णाणं अट्ठ वियप्पं मदिसुदिओही अणाणणा गाणि ।
मण पज्जव केवलमगि पच्चक्ख परोक्ख भेयं च ॥५॥ गाथार्थ--कुमति, कुछ त, कुअवधि मति, श्रुत, अवधि, मनः पर्यय और केवल
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