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क्रोधान्ध मानव का हृदय विवेक शून्य हो जाता है।
इसमें भी कर्म के उदय को बलवान् समझकर उसको निमित्तता स्वीकार की गई है। कर्म के बिना प्रात्मा को रोकने वाला इस ससार में कौन है ? ___कोई कोई मिथ्यात्व के कारण रुका हुआ है ऐसा कहते है । परन्तु वह मिथ्यात्व क्या है ? इसका भी विचार करने पर निमित्त को स्वीकार करना ही पड़ता है ।
निमित्त कुछ नही करता है यह कहते हुए भी सारे ससार का निमित्त कर्म ही है इसे स्वीकार करना पड़ता है। कर्म के निमित्त से ही देव नारको, मनुष्य, तिर्यच पर्याय की प्राप्ति होती है। इसमें गति और आयु कर्म ही निमित्त है। आचार्य कुदकुद कहते हैं कि
कम्मेण विणा उदयं जीवस्स ण बिज्जदे उवसमं वा।
खइयं सवोव समियं तम्हा भावं हि कम्म कयम् ।। कर्मों के विना इस जीव के उदय, उपशम, भय एव क्षयोपशम आदि नही होते है । इस लिये जीव भाव कर्म कृत है । अर्थात् कर्म के निमित्त से होते है। आचार्य कुन्दकुन्द ने भाव प्राभृत में स्पष्ट किया है कि
जिणवर चरणांबुरुहं णमंति जे परम भत्ति रायेण ।
ते जम्म वेछि मूलं खरणंति वरभाव सत्तेण ॥१५१॥ जो परम भक्ति रूपी राग से जिनेद्र के चरण कमलों को नमस्कार करते है वे (उस निमित्त से) उत्तम भाव रूपी शस्त्र से जन्म रूपी लता को मूल से उखाड़ देते है। यहां पर ससार को नाश करने वाली जिनेद्र भक्ति कही गई है।
यदि अन्य निमित्त जिनेद्र भक्ति, समवसरण, दिव्य ध्वनि आदि हमारा कुछ भी उपकार नही करते है तो उनकी निमित्तता को स्वीकार क्यो करना चाहिये?
पात्र दान, संयम, तपाराधना वगैरे से क्या प्रयोजन है ? महर्षि कुदकुद ने श्रावक व मुनियों के कर्तव्य को विभक्त किया है
दाणं पूजा मुक्खं सावय धम्मे ण सावया तेण विणा । झाणाज्झयणं मुक्खं जइ घम्मे तं विणा तहा सोवि ॥
- रयणसार श्रावक धर्म में दान पूजा मुख्य है। श्रावक धर्म को पवित्र बनाने के लिए इनकी आवश्यकता है। अगर ये कर्तव्य न हो तो वह श्रावक नही कहलाता है। ध्यान व अध्ययन यति धर्म में मुख्य है । यति धर्म को सुसस्कृत करने के लिए ध्यान व अध्ययन कारण है। उसके बिना वह यति नही बन सकता है। . [३०]