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जिसकी दृष्टि निर्मल है उसको दीपक की जरूरत नहीं है।
निमित्तता हैं या नही? यदि है तो निमित्त को स्वीकार करने मे क्या आपत्ति है ? यदि नही है तो सिद्धान्त विरुद्ध कथन कैसे मान्य होगा?' प्रकृति आदि बंधो का लक्षण करते हुए आचार्य स्पष्टतः कहते है -
पयडि ठिठदि अणुभाग ,प्पदेस चउ विहो बंधो। ... . जोगा वडिपदेसा ठिदि अणु भागा कसाय दो होति ।। vi. 'बंध'चार प्रकार के होते है । प्रकृति बध, स्थिति बंध, अनुभाग बध और प्रदेश बंध । मन वचन काय रूपी योग के निमित्त से प्रकृति और प्रदेश बंघ होता है। स्थिति और अनुभाग कषाय के निमित्त से होते है। '..,आत्म प्रदेश का परिस्पदंन योग के लिए निमित्त है। योग प्रकृति स्थिति के लिए निमित्त है। यदि मन वचन काय रूपी योग न हो तो आस्रव ही नही हो सकता है। प्रकृति और प्रदेश बध न हो तो स्थिति और अनुभाग बघ किन कर्म परमाणुओ का होगा ? जरा सूक्ष्म दृष्टि से विचार कीजिये।
आत्म प्रदेशो का परिस्पदन का नाम ही योग है । इसमें काय योग कारण पड़ता है। घचन योग कारण पडता है, और मनोयोग भी निमित्त पड़ता है।
उस निमित्त के भी निमित्त है। काय की उत्पत्ति में अतरग निमित्त तो ,वीर्यातराय कर्म का क्षयोपशम है। परन्तु वाह्य निमित्त औदारिकादि सप्त विधि काय वर्गणानो में किसी एक काय के भी निमिति से आत्म प्रदेशो में परिस्पदन जो होता है वह-काय योग है।
इसी प्रकार वचन के लिए अंतरंग निमित्त शरीर नाम कर्म के उदय के निमित्त से होने वाली वाग वर्गणा है। वीर्या तराय मत्यक्षरा आवरण होने पर बाह्य से वाक् प्रवृति में परिणत मात्मा का प्रदेश परिस्पद वाक् योग है। इसी प्रकार मनो योग में अभ्यतर निमित्त वीर्या तराय नो इन्द्रियावरण कर्म का क्षयोपशम एव बाह्य निमित्त मनोवर्गणा के संचय से विचार परिणत आत्म प्रदेश का परिस्पंदन मनोयोग है। . . . : .
अर्थात् इन तीनो योगो में बाह्य और अंतरंग निमित्त का उल्लेख आचार्यों ने किया है।
जब योग के द्वारा प्रकृति प्रदेश का बंध होता है तब उन कर्म प्रकृतियों की स्थिति बंध जाती है, वह कर्म प्रकृति आत्मा के साथ कितने काल तक रहने वाली है इसका निर्णय हो जाता है । दीर्घ काल तक रहने वाली है या अल्प काल तक रहने वाली है ? इसका निर्णय कि निमित्तक होगा?
आचार्य ने वही उत्तर दिया है, स्थिति व अनुभाग बंध कषाय से होते है। इसमें कषाय निमित्त है।
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