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संपम ही पमरान का नाश करने के लिए समर्थ है। इसलिए एक नही, दो नही, हजारो स्थानो में इस प्रकार का उल्लेख मिलेगा कि उपादान के साथ निमित्त भी काम करता है। निमित्त उपादान को कार्य करने में कारण स्वीकार न करे तो जैन सिद्धान्त का ही अन्त हो जायेगा, मोक्ष की प्राप्ति भी जीव को नहीं हो सकेगी । पचास्तिकाय की गाथा नम्बर ५ की टीका में स्पष्ट कहा गया है
"रागादि दोष रहितः शुद्धात्मानुभूतिसहितो निश्चय धर्मों यद्यपि सिद्धगतरूपादानं कारणं भव्यानां भवति तथापि निदान रहित परिणाम उपार्जित तीर्थंकर प्रकृत्युत्तम संहननादि विशिष्ट पुण्य रूप कर्मापि सहकारिकारणं भवति ।"
यद्यपि भव्यो को रागादि दोष रहित शुद्धात्मा के अनुभव से युक्त निश्चय धर्म सिद्ध गति के लिए उपादान कारण है, फिर भी निदान रहित निर्मल परिणाम, तीर्थकर प्रकृति, उत्तम संहनन, विशिष्ट पुण्य आदि सहकारी कारण होते है।
इससे विषय बहुत स्पष्ट हो जाता है। अपने कार्य की सिद्धि के लिए उपादान व निमित्त (उपादान में सहकारी) दोनो कारणों को मानना आवश्यक है, यह वस्तु स्थिति है।
वस्तु स्थिति को कोई बलात्कार से नही भी माने तो वह द्रव्य अपने स्वभाव के अनुसार अन्तःबाह्य कारणो से कार्य करेगा ही। अग्नि को कोई गरम माने या न माने वह भाग तो स्पर्श करने पर जलायेगी ही, उसे कोई शक्ति रोक नही सकती है।
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3 शास्त्र का लक्षण जो जीवों का हितकारी हो, जिसका हो न कभी खण्डन । ) जो न प्रमाणो से विरुद्ध हो, करता होय कुपथ खण्डन ।। वस्तु रूप को भली-भांति से, बतलाता हो जो शुचितर । X कहा आप्त का शास्त्र वही है, शास्त्र वही है सुन्दरतर ॥
तपस्वी या गुरु का लक्षण विषय छोड़ कर निरारम्भ हो, नही परिग्रह रखे पास । X ज्ञान, ध्यान, तप में रत होकर, सब प्रकार की छोडे आस ॥४
ऐसे ज्ञान, ध्यान, तप भूषित, होते जो साँचे मुनिवर । "
वही सुगुरु हैं, वही सुगुरु है, वही सुगुरु है उज्ज्वलतर ॥ (6) RECEDEKDEREDEEDEDEOS
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