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कोती दानानुसार फैलती है।
अन्यत्र प्रसिद्ध धर्म का अन्यत्र समारोप करने वाली असद्भुत व्यवहारनय है। जैसे पुद्गल आदि में जो धर्म है उसका जीवादि में समारोप करना। इसके नी भेद है
(१) द्रव्य में द्रव्य का उपचार (८) गुण में द्रव्य का उपचार (२) पर्याय में पर्याय का उपचार (७) गुण में पर्याय का उपचार (३) गुण में गुण का उपचार (८) पर्याय में द्रव्य का उपचार (४) द्रव्य में गुण का उपचार (६) पर्याय में गुण का उपचार (५) द्रव्य में पर्याय का उपचार
यह नौ प्रकार का उपचार असद्भूत व्यवहार नय का विषय है। जैसे- (१) पुद्गल में जीव का उपचार अर्थात् पृथ्वी आदि पुद्गल में एकेन्द्रिय जीव का उपचार । (२) दर्पण रूप पर्याय में अन्य पर्याय रूप प्रतिबिंब का उपचार । किसी के प्रतिबिब को देखकर जिसका वह प्रतिबिंब है उसको उस प्रतिबिंब रूप बतलाना । (३) मतिज्ञान मूर्त है-यहां विजाति ज्ञानगुण में विजाति मर्त गुण का आरोपण है। (४) जीव अजीव ज्ञेय अर्थात् ज्ञान के विषयक है। यहां जीव-अजीव द्रव्य में ज्ञान गुण का उपचार है। (५) परमाण बहुप्रदेशी है अर्थात् परमाण पुद्गल द्रव्य में बहुप्रदेशी पर्याय का उपचार है। (६) श्वेत प्रसाद । यहा पर श्वेत गुण में प्रसाद द्रव्य का आरोप किया गया है। (७) ज्ञान गुण के परिणमन में ज्ञान-पर्याय का ग्रहण, गुण में पर्याय का आरोपण है। (८) स्कंध को पुद्गुल द्रव्य कहना, पर्याय में द्रव्य का उपचार है। (8) इसका शरीर रूपवान है। यहाँ पर शरीर रूप पर्याय में "रूपवान" गुण का उपचार किया गया है।
मुख्य के अभाव में प्रयोजन वश या निमित्त वश जो उपचार होता है वह उपचरित असद्भूत-व्यवहार नय है। जैसे मार्जार को सिह कहना। यहा मार्जार और सिंह में सादृश्य सम्बन्ध के बिना उपचार नही हो सकता। जैसे चूहे आदि में सिंह का उपचार नही किया जा सकता । वह सम्बन्ध अनेक प्रकार का है। जैसे अविनाभाव सम्बन्ध, सश्लेष सम्बन्ध, परिणाम-परिणामी सम्बन्ध. श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध ज्ञान-ज्ञय सम्बन्ध, चारित्र-चर्या सम्बन्ध इत्यादि । ये सब उप-- चरित असदभूत व्यवहार नय के विषय है । "तत्वार्थ का श्रद्धान सम्यग्दर्शन है" यह उपचरित असद्भूत-व्यवहार नय का विषय है। क्योकि यहा पर श्रद्धा-श्रद्धेय सम्बन्ध पाया जाता है। "सर्वज्ञ" यह भी उपचरित असद्भूत-व्यवहारनय का विषय है, ज्ञय ज्ञायक सम्बन्ध पाया जाता है। सर्व जो ज्ञेय उनका ज्ञायक सर्वज्ञ होता है।
इन नयो के द्वारा वस्तु का स्वरूप जाना जाता है। क्योकि जिनेन्द्र भगवान की तीर्थ प्रवतैना दो नय के आधीन है । एक नय से कार्य को सिद्धो नही होती है। अमृत चन्द्राचार्य ने कहा है:
व्यवहार निश्चययौ वा प्रबुद्ध तत्वेन भवति मध्यस्थः। प्राप्नोति देशनायाः स एव फलम विकलं शिष्यः॥
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