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राग द्वेष रूपी विष--बन का बीज मोह है।
बाह्य कारण (निमित्त) व अभ्यतर कारण (उपादान) इन दोनों की पूर्णता होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है । जिस प्रकार मिट्टी का घडा अपने को तैयार करना है। उसमे मिट्टी उपादान कारण है। क्योकि उसमे घडे के रूप में परिणत होने की योग्यता है । इसी प्रकार बहिरग कारण कुमार चक्र, दड, पानी बगैरह है । इन दोनो की पूर्णता होने पर ही घडा बनने रूपी कार्य होता है। फिर उस कार्य में बिलब नही लगता है । हे भगवन् । यह दोनों ही कारण द्रव्य का ही स्वभाव है, ऐसा आपने कहा है। इन दोनो कारणो को पूर्णता से ही कार्य होता है। यहा पर दूसरा उदाहरण लीजिये -
जिस प्रकार बोरे में रखे हुए उडद में पकने की शक्ति है । परन्तु जब तक आग, पानी लकडो आदि बहिरग कारण नही मिलते है । तब तक वह शक्ति व्यक्त नहीं हो सकती है।
एक विशेष जाति के मूग में पकने की शक्ति भी नहीं है बाह्य सर्व सामग्री मिलने पर भी उसमें पकने को शक्ति नही है । सो वह पक नही सकेगा।
दोनो कारणो में समर्थता होने पर ही कार्य की उत्पत्ति होती है । अत केवल उपादान से या निमित्त से कार्य नही होता है, दोनो कारणो के मिलने पर ही कार्य होता है ।
आचार्य ने यहा पर दोनो कारणो को द्रव्यगत स्वभाव वतलाया है। इसलिये एक ही कारण पर्याप्त है, दूसरा कारण अकिचित्कर है इस कथन का भी कोई अर्थ नहीं है। इस विषय को ग्रन्थकार ने और भी स्पष्ट किया है। इस प्रकार बाह्य और अभ्यतर, निमित्ति और उपादान दोनो को कार्य मे कारण नही मानोगे तो मोक्ष का भी अभाव हो जायेगा। क्योकि मोक्ष भी वाह्य और अभ्यतर कारणो का लकर ही होता है।
मोक्ष में अभ्यतर कारण, मोक्ष प्राप्ति की योग्यता है। और बाह्य कारण दीक्षा लेना, तपश्चर्या करना, महाव्रत धारण करना, रत्नत्रय को पूर्णता करना, ध्यान की सिद्धि करना आदि है, इन दोनो कारणो को पूर्ति में ही मोक्ष रूपी कार्य होता है। अगर दीक्षा लेना बगैरे निमित्त कारणो के बिना ही मुक्ति होना माना जाय तो आगम विरोध होगा। इसलिए दोनों कारणो की पूर्ति मे ही मोक्ष की सिद्धि होगी। इन दोनो कारणो को पूर्ति एव सामर्थ्य भव्य में ही प्रगट होती है । अन्यथा अभव्य को भी मुक्ति प्राप्त हो जाती।
दूसरी बात तद्भव मोक्षगामी निश्चित रूप से मोक्ष को जाने वालो के लिए दीक्षा लेना, घ्यान, चारित्र आदि की आवश्यकता नही पडती, वे तो अपनी योग्यता से मोक्ष जाने वाले ही है। फिर वे दीक्षा आदि क्यो लेवे । इससे मालुम होता है कि कार्य करने मे उपादान में जैसे योग्यता है उसी प्रकार निमित्त कारण में भी उसमें सहकार्य करने को शक्ति है। परन्तु तीर्थकर आदिको को भी मुक्त, होने की योग्यता होने पर भी बाह्य कारणो -- दीक्षा, तपश्चर्या आदि निमित्तो को मिलाना पडता है । उसके बिना त्रिकाल मे भी मोक्ष रूपी कार्य होना सभव नही है।
इससे विषय बहुत स्पष्ट हो जाता है, आचार्य पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में "तन्सिर्गा वधि गमाद्वा" इस सूत्र को व्याख्या करते हुए लिखा है कि- " उभयत्र सम्यग्दर्शने अतरगो हेतु
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