________________
मैतिक संस्कार अनंतिक वासनाओ का दमन करते हैं। बात करते चले जाते है । दूसरो के विचारो का उनके यहाँ कोई मूल्य नही है। परिणामतः विरोध का जन्म होता है। उदाहरणार्थ तीन वयस्क छात्राये भिन्न-भिन्न स्कूलो मे पढती थी। एक कान्वन्ट में जो अपनी जन्मदात्री को मदर या मम्मी कहती थी। दूसरी हिन्दी स्कूल में थी जो अपनी प्रसविनी को माता जी कहती थी किन्तु तीसरी गरीब थी जो अपनी मा को अम्मा कहा करती थी सयोगवश ये तीनों एक मेले मे सपरिवार आयी और आपस मे पूछने लगी कि उनको मा आई है या नही । तीनों ने मना कर दिया कि उनकी मा नहीं आई है। कारण तीनों ने अपने-अपने शब्दो को समझ रखा था। उनके ध्यान मे मम्मी माता जी नहीं हो सकती थी और माता जी अम्मा नही हो सकती थी। विवाद बढ गया और किसी एक तीसरी महिला ने, जो तीनो ही शब्दो को एकार्थवाची जानती थी, उनके विवाद को दूर किया। इस तरह भाषा भेद, अभिप्राय भेद, देश-काल भेद नाना प्रकार के विवाद और दुराग्रहो को जन्म देते है। ये विवाद दर्शन के क्षेत्र में ही नही राष्ट्र, जाति समाज और व्यक्ति के रूप में सदा से पनप रहे है।
___ अनेकान्त दृष्टि न होने के कारण एक छोटे से परिवार की जो दुर्दशा हुई वह निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जाती है । एक सद् गृहस्थ का छोटा सा सुखी परिवार था, जिसमे विधवा माता, उसका बडा पुत्र, पुत्रवधू, छोटा भाई तथा एक छोटा पोता था। छोटा भाई तथा पुत्र दोनो समवयस्क थे । रात्रि में दूध पिलाने का कार्य वृद्धा मा किया करती थी। एक दिन वह बीमार हो गई और उसने अपनी पुत्रवधू को दूध देने के लिये कहा और सो गई। वहू ने देवर
और अपने बेटे को बराबर दूध देकर सुला दिया। प्रातः वृद्धा ने अपने बच्चे से पूछा बेटा भावी ने तुझे कितना दूध दिया था। बेटा बोला मुझे भावी ने साधा गिलास दूध पिलाया था। मा के मन में पाप जागा उसने पोते को बुलाया और पूछा । क्यो मुन्न तुम्हे तेरी मा ने कितना दूध पिलाया बच्चा वोला मुझे मेरी मा ने आधा भरा गिलास दूध पिलाया था। यह बच्चे का उत्तर सुनकर वृद्धा जल' गई और घर मे वह कलह हुई कि सवका खाना पीना हराम हो गया। रसोई बन्द पडी रही । बडे भाई ने आकर जब यह सन्नाटा देखा तो वह भी समझ न पाया कि क्या वस्तुस्थिति है। वृद्धा मा अपनी बहू को खरी खोटी सुनाती ही जा रही थी। अन्त मे रहस्य का उद्घाटन हुआ कि मा के मन की कलुषता ने आधे भरे और आधे खाली गिलास का अनर्थ कर डाला। तथ्य यह था कि दोनो ही गिलास में दूध बरावर था। मन के विकार या अभिप्राय विशेष के कारण विरोध व अशात्ति उत्पन्न होती है। विचारक यदि विचार समन्वय का ध्यान रखे तो उसे निश्चित ही दैनिक जीवन में सुख और शाति मिल सकती है। जोवन के प्रत्येक क्षण में सापेक्षवाद, समन्वयवाद, दृष्टिभेद को व्यक्ति कार्य में लेते रहे तो विरोध का शमन अनिवार्य हो हो जाता है । स्याद्वाद सिद्धान्त द्वारा साधारण विचार विरोध ही नहीं विश्व में सुख और शान्ति का अखण्ड साम्राज्य स्थापित किया जा सकता है । स्वामी समन्त भद्र घोषणा करते है
अनवद्यः स्याद्वादः ॥
[२१]