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-: जीवन निर्माता :
आज से लगभग ३८ वर्ष पूर्व जबकि मेरी आयु लगभग १७ वर्ष की थी । मे अपनी पूज्य माता जी के साथ रेवारपुर ( कोटा ) गया हुआ था। वहां मैने सर्वप्रथम परमपूज्य प्रातः स्मरणीय तपोनिधि आचार्य कल्प श्री १०८ श्री चन्द्र सागर जी महाराज के दर्शन किये। उन्होने बड़े प्रेम से मेरे सिर पर पिच्छिका रखते हुए आशीर्वाद दिया ।
दूसरे दिन मैंने उनके आहार की विधि देखी, मनमें उमग उठी कि मैं भी आहार दूं- मैंने अपनी पूज्य माता जी से कहा- क्या मैं भी आहार दे सकता हू । उन्होने कहा बेटा – इन्हे वही व्यक्ति आहार दे सकता है जो स्वय शुद्ध आहार लेने का नियम ले — उस सारी विधि को सुन कर सहम सा गया । मैं तो बाजार की पकौड़ियाँ, सेव आदि खाने का आदी था ।
एक दिन पूज्य गुरुवर ने टोक ही दिया। क्यो हमें भोजन नही कराओगे। मन में सोचा क्या उत्तर दू- आखिर अनायास मुह से निकल गया। महाराज जब आप हमारे गांव में पधारेंगे तब मै आपको आहार दूगा - महाराज श्री का ३-४ दिन बाद वहा से विहार हो गया। बात आई गई सी हो गई। पर उनकी स्मृति हृदय पटल पर अकित हो गई ।
लगभग - १० माह बाद निमित्त से पूज्य गुरुवर का सघ सहित सवाई माधोपुर में आगमन हुआ (वि० स० १९६६ ) | बड़े समारोह के साथ सघ का नगर में प्रवेश हुआ - मै भी उस उत्सव में सम्मिलित था। मुझे पिछली सारी स्मृति याद हो आई । पूज्य महाराज श्री की धर्म देशना हुई । उसी प्रसग में उन्होने कहा कि यहा का एक लड़का जो अपने आपको पापडीवाल बतलाता था । हमे यहाँ आने का निमन्त्रण देकर आया था— कौन है वह - मैं झट हाथ जोडकर खड़ा हो गया । महाराज श्री ने कहा- क्यो भोजन कराना है या नही - में लज्जित सा खड़ा रहा । पूज्य महाराज जी का आहार अन्यत्र हुआ ।
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दूसरे दिन प्रात' मैंने स्वय बिना घरवालो के पूछे महाराज श्री से शुद्ध भोजन करने की प्रतिज्ञा ली और जो-जो नियम उन्होने बतलाए उन सभी को मैंने स्वीकार किया उस दिन से मेरे जीवन में एक नया मोड़ आ गया और मुझे एक नया मार्ग मिला - लगातार हमारे यहां चौका बनता रहा लेकिन लगभग ५-६ दिन तक पूज्य गुरुवर के आहार दान के पुण्य का योग प्राप्त नही हो सका । जब वे अन्यत्र आहार करके आये तो मैं मंदिर जी की सीढ़ियों पर बैठा था । मेरी आँखो से अश्रु धारा बह रही थी। गुरुवर ने सिर पर पिच्छिका रख कर आशीर्वाद देते हुये कहा। क्यो आज क्या बात है - मैने कहा महाराज मेरे वहा आहार क्यो नही हो रहा हैपूज्य गुरुवर कहने लगे रोने से क्या लाभ है । दूकानदार दूकान लगाता है। ग्राहक भी पाता है तुम तो अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे हो ...
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...मेरे को कुछ
धैर्यं बंधा । और (शेष पृष्ठ ५० पर)
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