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सत्पुरुषों को वाणी हृदय नेत्र को खोल देती है।
को ही नही जानता है, किन्तु गौण और प्रधान रूप से धर्म और धर्मी दोनों का विषय करता है उसे नैगम नय कहते है । जैसे जीव अमूर्त है ज्ञाता है दृष्टा का सूक्ष्म भोक्ता परिणामी और नित्य है । यहा प्रधान रूप से जीवत्व का निरूपण करने पर सुखादि धर्म गौण हो जाते है ।
और सुखादि गुणो का निरूपण करने पर आत्मा गौण हो जाती है। और धर्म धर्मी को या गुण गुणी को अत्यन्त भिन्न मानना नैगमाभास है । जैन धर्म के अनुसार गुण गुणी अवयवअवयवी क्रिया कारक और जाति व्यक्ति में अत्यन्त भेद मानने वाला न्याय वैशीषिक दर्शन नगमाभासी है । तथा चैतन्य और सुखादि अत्यन्त भेदवादी साख्य भी नैगमाभासी है। इन दोनों दर्शनो ने निरपेक्ष तत्व स्वरूप का विवेचन किया है वह नैगम नय की दृष्टि से यथार्थ होते हुये भी निरपेक्ष है । इसलिये अयथार्थ है, क्योकि नैगम नय सत्याश है पूर्ण सत्य नही है ।
नगम का अर्थ अनभिनी वृतार्थ सकल्पमात्र ग्राही नैगम । (स सि०)अर्ण सकल्प मात्र ग्राह नैगमः । (त० रा०)
तत्र सकल्प मात्रस्य ग्राहको नैगमो नयः । (त० श्लो० वा०) अनिष्यन्नार्थ सकल्प मात्र ग्राही नैगमः । (प्र० क० मा) - अनिष्यन्न सकल्प मात्र ग्राहक नैगम नय है। ___ अन्यदेव हि सामन्यमभिन्न ज्ञान कारण। विशेषो अप्यन्य एवेति मन्यते निगमो नयः । (स० त० टी) सामान्य ज्ञान भिन्न है और विशेष ज्ञान भिन्न है ऐसा मानने वाला नैगम नय है।
नैकर्मानमहासत्ता सामान्य विशेष विशेष जाननिर्माते मिनोति वा नैकम.। एक मानस महासत्ता सामान्य विशेषज्ञान के द्वारा जो नही मानता है वह नैगम है। निगमेषु अर्थ बोधेषु कुशलो भवो वा नैगम । निगम अर्थात् पदार्थ के ज्ञान में कुशल जान नैगम है । अथवा नैके गमाः पन्थानां यस्य स नैकेगम । एक जिसका मार्ग नही वह नैगम है।
तत्राय सर्वत्र सदित्येवमनुगता काराव बोध हेतुभूता महासत्तामिच्छति-अनुव्रत व्यावृत्ता वबोध हेतुभूत च सामान्य विशेष द्रव्यत्वादि ध्यावृत्तावबोध हेतुभूत च नित्य द्रव्यवृत्ति मन्त्य विशेषमिति ।
इस नय में सर्वत्र सत् इस प्रकार अनुगत द्रव्याकार ज्ञान की कारण भूत महासत्ता को स्वीकार करता है जो अनुव्रत और व्यावत रूप सामान्य विशेष रूप द्रव्य को स्वीकार करता है वह नैगम नय है।
निगम का अर्थ सकल्प भी होता है। अत अर्थ के सकल्प मात्र का ग्राही नैगम नय है। जैसे प्रस्थ बनाने के निमित्ति जगल से लकडी लेने के लिये कुठार लेकर जाने वाले किसी पुरुष को पूछा आप कहा जा रहे है। वह उत्तर देता है कि प्रस्थ के लिये । तथा पानी ईधन चावल आदि कार्य में लगे पुरुष से किसी ने पूछा आप क्या कर रहे है ? तो वह उत्तर देता है कि रसोई बना रहा हू । किन्तु उस समय न तो प्रस्थ है और न रसोई । परन्तु उन दोनो का प्रस्थ
और रसोई बनाने का सकल्प है । उस सकल्प में ही वह प्रस्थ या रसोई का व्यवहार करता है। अत. अनिष्यन्न अर्थ के सकल्प मात्र का ग्राहक नैगम नय है।