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काम वासना को नाश करने के लिये गुरु संगति ही श्रेष्ठ है
रूप विशेष में व्यवस्थित एक जीव सामान्य का ही दर्शन होता है पर्याय प्रतिभासित नही होती और द्रव्यार्थिक दृष्टि वन्द करके पर्याय दृष्टि से देखते है तो नर पर्याय आदि से जीव आत्मा भिन्न-भिन्न रूप से प्रतिभासित होता है । द्रव्यार्थिक पर्यायाथिक दोनों दृष्टि को खोलकर के देखते है तो नरकादि पर्याय में अवस्थित जीव ओर जीव में व्यवस्थित नर नारकादि पर्याय में युगपत् दृष्टिगोचर होती है। अतः वस्तु को एक दृष्टि से देखना वस्तु का एक देश देखना है
और दोनों दृष्टियो से देखना वस्तु का सर्न देश देखना है । इस प्रकार वस्तु के देखने को दो दृष्टि है । उन्ही का नाम पर्यायाथिक और द्रव्याथिक नय है। जैसा सन्मति तर्क में लिखा है--
"तित्थयर वयण संग्रह विसेस पत्थार मूल वागरणी। . द्विव्वद्विओ य पज्जवणओ य ऐसा वियप्पासि ॥ तीर्थकरों के वचनों की सामान्य और विणेप रूप राशियों का मूल प्रतिपादक द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक नय है वाकी सव इन दो नयों के ही भेद है। अनेकांत का निरूपण नयों के द्वारा ही हो सकता है। नय अनेक है क्यों कि वस्तु अनेक धर्मात्मक है और एक एक धर्म का ग्राइक नय है परन्तु उन सवका समावेश सक्षेप मे इन्ही दो नयो में हो जाता है।
-विशेष भेद--- द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद है-नैगम, संग्रह, और व्यवहार । तथा पर्यायाथिक नय के चार भेद है । ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ और एवं भूत । इन सात नयों में आदि के चार नयों को अर्थ नय कहते है । क्यों कि वे अर्थ की प्रधानता से वस्तु को ग्रहण करते है। तथा शब्द प्रधान होने से प तीनो नयों को शब्द नय कहते है। द्रोप्यतिगदु दुवत्तांस्तान पर्यायानिति द्रव्यं वा द्रव्यति गच्छति तांस्तान्पर्यायान् द् व्यते गम्यते तस्तै. पर्यायरिति वा द्रव्यं । जो अपनी अपनी गुण पर्यायों को प्राप्त होते है उसको द्रव्य कहते है । "निज निज प्रदेश समूहै रखण्ड वृत्या स्वभाव विभाव पर्यायान द्रवति द्रोष्यत्यदुद्रवत चोति द्रव्यं ।" जो अपने प्रदेश समूह के द्वारा अखण्ड वृत्ति से अपने अपने गुण पर्यायों को प्राप्त होते है उसको द्रव्य कहते है।
द्रव्यमेवार्थः प्रयोजनमस्पेति द्रव्यार्थिक. । द्रव्य ही जिसका प्रयोजन हो उसको द्रव्यार्थिक कहते है वा द्रव्यं सामान्यम भेदो अन्वय उत्सर्गो अर्थो विषयो येषां ते द्रव्यार्शिक. । द्रव्य सामान्य अभेद अन्वय उत्सर्ग यह ऐकार्थ वाची है-अभेद अन्यव सामान्य का विषय करने वाला द्रव्या र्थिक नय है । अकलक देवने लघीयस्त्रय में कहा है--
"चत्वारो अर्थनया हयेते जीवाद्यर्थ व्यापाश्रयात् ।
त्रयः शब्दनयाः सत्यपद विद्यां समाश्रिताः॥ चार अर्थ नय है जीवादि अर्थ के आश्रय है और तीन शब्द नय है सत्यपद विद्या के आश्रित है।
नगम नय नैकं गमः नैगम. संग्रहासग्रहस्वदयं द्रव्यार्थिको नैगम. अर्थात् जो धर्म और धर्मी मे से एक [४]