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गुरुओ को सगति कल्पवृक्ष के सम्गन मनोवांक्षित फल देने वाली होती है।
व्यवहार, विकल्प, भेद और पर्याय सब एकार्थवाचो है निर्विकल्प अभेद निश्चय और द्रव्य यह एकार्थ वाची है इसलिये व्यव्हारनय का दूसरा नाम पर्यायाथिक है और निश्चय नय का दूसरा नाम द्रव्याथिक है। अभेद अनुपचार रूप से जो वस्तु का निर्णय करे वह निश्चय नय है । तथा भेद विकल्प सयोग रूप वा उपचार से जो वस्तु का व्यवहार करता है वह व्यवहार नय कहलाता है। आगम भाषा मे द्रव्यार्थिक नय को नैगम सग्रह और व्यवहारनय यह तीन भेद कहे है। आध्यात्म भाषा से द्रव्यार्थिक (निश्चय) नय के मूल दो भेद है-- (१) शुद्ध द्रव्याथिक (२) अशुद्ध द्रव्याथिक ।
शुद्ध द्रव्यार्थिक नय के तीन भेद है .
(१) कर्म निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय-जैसे इस नय की अपेक्षा समस्त ससारी जीव सिद्धो के समान है क्योकि ससारी और मुक्त जीवो में कर्म को अपेक्षा से हो अन्तर है परम पारिणामिक भाव की अपेक्षा कोई अन्तर नही है।
कम्मारणं मझगय जीवं जो गहइ सिद्ध संकासं ।
भण्णई सो सुद्धपओ खलु कम्मोवाहि पिरवेक्खो ॥ कर्मों के बीच पड़े हुये जीव को सिद्ध समान ग्रहण करने वाला नय कर्मोपाधि निरपेक्ष शुद्ध नय है।
(२) उत्पाद व्ययगौण सत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिक नय - यह नय उत्पाद-व्यय को गौण करके केवल सत्तामात्र को ग्रहण करने वाला है । जैसे द्रव्य नित्य है।
द्रव्य का लक्षण उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है नित्य अनित्य आत्मक है परन्तु यह नय उत्पाद-व्यय को गौण करके केवल घोव्य को प्रधानता को ग्रहण करता है। अनेकात दृष्टि से इस नय का विषय यथार्थ नही है तथापि एक नित्य धर्म की अपेक्षा सत्य है।
(३) भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय-इसकी अपेक्षा गुण-गुणी पर्याय-पर्यायी में अभेद का अभिन्नत्व है । यद्यपि सज्ञा सख्या लक्षण और प्रयोजन को अपेक्षा गुण ओर गुणी मे द्रव्य और पर्याय में भेद है तथापि द्रव्य-क्षेत्र-काल-स्वभाव की अपेक्षा कोई भेद नही है । अनेकात दृष्टि से द्रव्य भेदाभेदात्मक है । परन्तु जो भेद को गौण कर अभेद को मुख्यता से ग्रहण करता है वह भेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय है।
अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय के चार भेद है(१) कर्मोपावि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय । (२) उत्पाद-व्यय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय । (३) भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय ।
(४) अन्वय सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय। (१) कर्मोपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्यायिक नय
कर्मोपाधि को अपेक्षा सहित अशुद्ध जीव द्रव्य अशुद्ध द्रव्याथिक नय का विषय है। जैसे कर्म-जनित क्रोधादि भावरूप आत्मा है । ससारी जीव अनादि काल से पोद्गलिक कर्मों से धवा हुआ है इसलिए अशुद्ध है । ससारी जीव में कर्मजनित औदयिक भाव निरन्तर होते है और वे
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