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गुरुजनो को आज्ञा का उल्लंघन करने वाला पाप का भागी होता है।
इयति एति गच्छति इत्यर्यनयः । अभेदक अथवा अभेद रूप से सर्व वस्तु को प्राप्त होता है उसको अर्थ नय कहते है। जय धवल अ१
शब्द पृष्ठतोऽर्थ ग्रहण प्रवणः शब्द नय' लिंग संख्या काल कारक पुरुषोपग्रह व्यभिचार निवत्ति परत्वात् । लिंग सख्या साधनादि व्यभिचार निवृति परः शब्द नयः शपत्यर्थ माह्वयति प्रत्यायति शब्दः ।
जो नय काल कारक लिग सख्या आदि के भेद से अर्थ को भेद रूप मानता है व्यवहार नय काल कारक के भेद से अर्थ भेद स्वीकार नहीं करता है परन्तु शब्द नय को दृष्टि में यह सुस गत नहीं है। क्योंकि यह नय शब्द की प्रधानता से उसके वाच्यार्थ को भेद रूप मानता है इसलिये इसे शब्द नय कहते है। जैसे इस मानव के विश्व को देख चुका है ऐसा लडका उत्पन्न होगा जो अभी पैदा नहीं हुआ है वह विश्व को कैसे देख चुका है अत अतीत और अनागत का जो सामानाधिकरण्य व्यवहार में जोड़ा जाता है परन्तु शब्द नय की दृष्टि में वह योग्य नही है। इसी प्रकार यह नय लोक व्यवहार और व्याकरण शास्त्र के विरोध की चिन्ता नही करता इसलिये यह नय लिग और कारक के भेद से अर्थ भेद ग्रहण करता है । यदि अतीत काल और भविष्यत मे भेद नही माना जायेगा तो अतीत रावण और भविष्यत् में होने वाला शंख चक्रवर्ती भी एक हो जायेगे । उसी प्रकार पुष्प तारा नक्षत्र आदि में लिंग भेद होने पर भी वैयाकरगा लोग एक ही मानते है अर्थ भेद नही करता है परन्तु शब्द नय भेद करता है यदि लिंगभेद से भेद नही माना जायेगा तो घर कुटी वस्त्र सब एक हो जायेगे। इसलिये शब्द नय कारकलिग आदि के भेद से भेद ग्रहण करता है।
समभिरूढ नय नानार्थ समभिरोहणात् समभिरूढः । शब्द भेद से अर्थ भेद मानने वाला नय समभिरूढ है जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्द्र शब्द इस नय को दृष्टि में भिन्न भिन्न अर्थ के वाचक है। अर्थात क्रीड़ा करने से इन्द्र शक्तिशाली होने से शक और पुरो का विदारण करने से पुरन्दर है इस प्रकार यह नय शब्द भेद से एक ही इन्द्र को भेद रूप स्वीकार करता है। शब्द नय तो कारक लिंग से आदि भेद से अर्थ भेद मानता है। पर्याय भेद नही परन्तु यह नय तो प्रत्येक शब्द का भिन्न भिन्न अर्थ मानता है जितने शब्द है उतने ही इस नय के वाच्यार्थ है।
एवंभूत नय
चेनात्मनाभूतस्ते तैवा व्यवसाय यबीति एवंभूतः । जो पदार्थ जैसा है उसका उसी प्रकार निर्णय करना एवभूत नय है अर्थात शब्द का जो वाच्यार्थ है उस रूप क्रिया परिणत अर्थ ही उस शब्द का वाच्यार्थ हो वह एवभूत नय का विषय है । जैसे जिस समय स्वर्ग का स्वामो इन्दन अर्थात् परमैश्वर्य का अनुभव करता है इस नय की अपेक्षा उसी समय वह इन्द्र कहलाने योग्य है। वह नय क्रिया प्रधान है इसलिये इस नय मे जिस त्रिया में परिणत को उस समय उसी प्रकार कहना इस नय का कार्य है । इन सात नयो में 'नगम सग्रह व्यवहार' यह तीन नय द्रव्यार्थिक है क्यो कि इनमें द्रव्य की प्रधानता
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