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- इस युग के महान् सन्त :जो साधना के क्षेत्र मे अपना सब कुछ दे देते है वे साधु कहलाते है। साध शब्द की निरुक्ति यह है कि 'यः आत्मानं साधयति तत्साधुः' । जो सब तरफ से इन्द्रियों के विषय भोग आशा लोकतष्णा आदि जाल से अपनी आत्मा को यहां तक कि अपनी देह से भी निर्ममत्व होकर सहज स्वभाव में रमाते रहते है वे ही ग्रन्थ रहित सच्चे पवित्रमना साधु माने जाते है । स्वर्गीय श्री १०८ चन्द्र सागर जी महाराज इसी के प्रतीक थे।
आपकी साधुता की गध सर्वत्र फैल गई थी। जो भी आपके चरणों में एक बार आ जाता था। वह चरण भ्रमर बन जाता था । आपकी कठोर तपस्या को देख कर दर्शक आश्चर्य चकित हो जाते थे । ग्रीष्म ऋतु में एक पाव से खड होकर ध्यान लगाना आपकी एक विशिष्ट आकर्षण शील चर्या थी।
आप सज्जातित्व के परम पोषक थे । आपके भाषणो मे आर्ष मार्ग की छाप रहती थी। प्रकृति मे बड़ी निर्भीकता थी। उपसर्ग परीषह जय मे अचल रहते थे।
आप परम जितेन्द्रिय थे। घृत, मीठा, लवण का आजन्म त्याग ही इसका प्रबल प्रमाण है। श्रावकोचित योग्याहार विहार ही आपके आशीर्वाद को परम कसौटी थी।
आपके निधन से समाज अनाथ हो गया। आज के युग में आपकी परम आवश्यकता थी। आपही के समान सन्मार्ग का अनुसरण करने वाले प्राचार्य प्रवर शाति सागर जी महाराज की संघ परपरानुवर्ती आचार्य श्री १०८ धर्म सागर जी प्रभृति संघ अहिंसा, अपरिग्रहवाद की महिमा से लोक को आलोकित कर रहे है । मैं आपके चरणो में अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करता है।
-सुमतिशाह जैन बी. ए. एकाउन्टेन्ट मेडीकल विभाग
जयपुर (राजस्थान)
पृष्ठ ४६ का शेषाश.... तीसरे या चौथे दिन गुरुवर को आहार देकर मैंने अपने को बड़ा भाग्यशाली समझा । सौभाग्य सेसंघ का वर्षायोग यही हुमा और संघ के सानिध्य मे लगभग ६ माहरहने का पुण्य योग प्राप्त हुआ। उन्ही का आशीर्वाद है कि जीवन कुछ धार्मिक प्रवृत्तियो की ओर मुड़ा और आज तक उनके आशीर्वाद से उनके दिलाये हुये नियमो का बराबर पालन करता रहा हूं। मेरे वास्तविक जीवन के प्रदाता उन परम गुरुवर तारण तरण परम तपस्वी तपोनिधि श्री १०८ आचार्य कल्प चन्द्र सागर जी महाराज के पुनीत चरण कमलो में मै शत शत वन्दना करता हूं।
-लाडली प्रसाद जैन पापड़ीवाल
सवाई माधोपुर
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