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॥ श्रो॥
विश्ववंद्य पूज्यपाद स्व० मुनि श्री चन्द्रसागर जी महाराज की
तपस्विता - व. शिवकरण जैन अग्रवाल, लाडनूं (राजस्थान) -
(वर्तमान में पूज्य क्षल्लक श्री १०५ सिद्धसागर जी महाराज)
चारित्र शिरोमणि परम तपोनिधि पूज्य १०८ स्व० श्री चन्द्रमागर जी महागज वर्तमान युग के एक आदर्श श्रेष्ठ वीतराग साधु थे । यद्यपि आज वसुधरा पर वे विद्यमान नही है, परन्तु उनका दिव्य उपदेश युग युगान्तर तक इस जगत के जीवो को मार्ग प्रशस्त करता रहेगा। यह घ व सत्य है। आप आगमानुसार स्पष्ट वोलते थे। आगम पर आपको अडिग विश्वास था। आपकी कृपा से इस जैन समाज में फैला हुआ मिथ्याधकार दूर हो सका । जिसके लिये जैन समाज आपका सर्वदा ऋणी रहेगा। वास्तव में समन्तभद्र स्वामी के बताये हुये साधु लक्षण के अनुसार आप ज्ञान ध्यान तप मे लीन सच्चे दिगम्बर साधु पुगव थे ।
आप इस पचम काल में सूर्यवत् अज्ञान व मिथ्यात्व के नाशक ही नहीं थे वल्कि मिथ्यादृष्टियो को त्रिशूल थे। आपके मामने धर्म विरुद्ध बोलने का कोई साहम नहीं कर सकता था आपको उग्र तपस्या के आगे आगम विरोधियो के आसन हिल जाते थे। आपका युक्तिवाद अभेद्य था। वक्तृत्व शक्ति भो असाधारण थी। इसी कारण आपके सामने आगम विरोधियो को नतमस्तक होना पड़ता था। वास्तव में आपके द्वारा जैन धर्म का प्रचार व प्रसार हुआ है। आपने आगम प्रणाली के रक्षण के लिए जो प्रयत्न किया था वह धार्मिक जनता यावत् "चन्द्र दिवाकरौ" भूल नही सकती है । आप प्राणी मात्र के हित चितक तथा हितकारी थे । ससार की महान् विभूति थे । ऐसे महामुनिराज को स्मृति को स्थापी बनाने का यह प्रयत्न स्तुत्य और अनुकरणीय है।
___ मै स्व० महाराज श्री के चरणो में कोटि कोटि नमन करता है और जिनेन्द्र प्रभ से यह हार्दिक प्रार्थना करता हूं कि आपकी आत्मा को शीघ्र ही मुक्ति लाभ मिले।
नोट:-श्री १०८ चन्द्रसागर जी महाराज की हस्तलिखित एक पुस्तक मुझे स्व० आचार्य श्री महावीर कीर्ति महाराज के सघ से प्राप्त हुई तभी मे इसको प्रकाशित करवाकर धार्मिक बन्धुओ के पठनार्थ पहुचाने को प्रवल इच्छा रही फलस्वरूप विदुषो रत्न श्री १०५ आयिका सुपार्श्वमती जी के कर कमलो मे अर्पित की। उन्होने इसका सपादन करके स्वर्गीय श्री चन्द्रसागर जी महाराज की निर्मल देशना को जनता तक पहुंचाने का प्रयत्न किया है। प्रस्तुत ग्रन्थ के प्रकाशन होने का श्रेय आपको ही है।
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