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संसार के भौतिक पदार्थ इन्द्रजाल के समान संसारियों को मोहित करते हैं।
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पूर्व जीवन,
Vव मतस्वी तथा जितेन्द्रिय थे। जब वे अपने निवास स्थान नाद गाँव (नासिक जिला) में गृहस्थावस्था में थे, तब उनका जैन, अजैन सभी पर बडा प्रभाव पडा करता था। जिस समय गांधी जी ने सन् १९२१ में अपना असहयोग आंदोलन आरम्भ किया था तव ये काग्रेस के मुख्य कार्य कर्ता थे और इनके हाथ में राष्ट्रीय तिरंगा झंडा था और ये कहा करते थे
"इसकी शान न जाने पावे, चाहे जान भले ही जावे ।
विजयी विश्व तिरगा प्यारा, झंडा ऊंचा रहे हमाग ॥" उस समय इनका नाम था खुशाल चन्द पहाड़े। ये ७० हीरालाल जी गंगवाल के, जो आचार्य वीर सागर महाराज के रूप में महनीय साधुराज वने, घनिष्ठ मित्र थे ।
सत्समागम
एक वार ये दोनों मित्र दक्षिण यात्रा को गये। वहां इन्होने उग्र तपस्वी, महान तेजस्वी श्री १०८ मुनि शांति सागर जी (जो अव आचार्य शांति सागर के नाम से धार्मिक जगत में सूर्य की तरह दैदीप्यमान हुए) के दर्शन किए । उस समय दिगम्बर मुनि का दर्शन दुर्लभ था। कुछ समय पूर्व इन्ही मुनि शाति सागर महाराज के शरीर पर पांच छः हाथ लम्बा सर्प लिपटा था तथा उस समय भी ये धैर्य धारी परम शात मुद्रा युक्त थे। उस तपस्या के काल में उनकी आकर्षण शक्ति अद्भुत थी। उनके दर्शन करते ही खुशाल चन्द जी तथा हीरालाल जी की यह भावना हुई कि अब अपने को सच्चे गुरु प्राप्त हो गये । इनके ही चरणो का शरण ग्रहण करना चाहिए।
दीक्षा
इस सत्समागम ने दोनों भव्यात्माओं के हृदय में आत्म उद्धार को सच्ची भावना जगा दी। सन् १९२७ में समडोली में शाति सागर महाराज मे ७० होरालाल जी ने मुनि दीक्षा ली। उनका नाम वीर सागर महाराज रखा गया। उनके साथ में पूज्य महाराज नेमि सागर जी की भी सुनि दीक्षा हुई थी। थी खुशाल चंद जी पहाडे को वहां क्ष ल्लक दीक्षा हुई। वे चन्द्र सागर महाराज कहे जाने लगे। चन्द्र सागर महाराज मुनि दीक्षा लेने वाले थे, किन्तु उनका विचार वदल गया , जव उन्हे यह ज्ञात हुआ कि शांति सागर महाराज ससंघ शिखर जी की वदनार्थ निकलने का निश्चय कर चुके है तथा संघ को सर्व सुव्यवस्था का वचन ववई के सेठ पूनमचन्द घासीलाल जवेरी ने दिया है तब उनका विचार बदल गया। उन्होने गम्भीरता पूर्वक विचार किया कि सैकड़ो वर्षों वाद उत्तर भारत को ओर दिगम्बर मुनि संघ का विहार होने पर सम्भव है दुष्ट जीवो के कारण कही तक उपद्रव या भारी विघ्न आ जाय, उस स्थिति मे मैं क्ष ल्लक रहते हुए, प्रतीकार हेतु हर प्रकार का उचित प्रयत्न कर सकूँगा । कदाचित मुनि पद अंगीकार कर लिया, तो मै सघ रक्षार्थ आवश्यक कार्य नही कर पाऊंगा। क्ष ल्लक रहते हुए कार्य करने की विशेष सुविधा रहेगी। [३२]