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"अनुपकारी के प्रत्युपकार"
- पूज्य श्री १०५ आर्यिका सुपार्श्वमती जी माताजी - एक बार निर्जन बन मे भ्रमण करते २ सीता अत्यन्त म्लान हो गई थी, तब राम से बोली-हे प्राणनाथ ! मेरे कठ एक दम सूख गये है । जिस प्रकार ससार में परिभ्रमण करते करते अनन्त जन्म-मरण से दुखी भव्य जिनेन्द्र भगवान के दर्शन की इच्छा करता है, उसी प्रकार तीव्र पिपासा से व्याकुल हुई मैं जल पीने की इच्छा करती है। इस प्रकार कहती हुई सीता एक सघन छायादार वृक्ष के नीचे बैठ गई।
इस प्रकार पिपासा से आकुलित हुई सीता को राम ने कहा-देवी ! विषाद को प्राप्त मत होवो । देखो सामने विशाल प्रासादो से युक्त नगर दृष्टिगोचर हो रहा है, वहा चलकर तुझे पानी पीने को मिलेगा।
राम के वचन सुनकर सीता उठी और धीरे-धीरे चलने लगी। नगर मे प्रवेश कर सोता सहित राम और लक्ष्मण एक ब्राह्मण के घर पहुंचे । ब्राह्मण को एक टूटी फूटी यज्ञशाला थी। उसमें विश्राम कर राम ने ब्राह्मणी से जल की याचना की । ब्राह्मणी पानी लेकर आई। सीता ने पानी पीकर थोड़ा सा विश्राम किया। इतने में मस्तक पर वेल, पीपल, पलाश आदि की लकड़ियो का भार लिये हुये अत्यन्त कुरूप लम्बोदर ब्राह्मणो का पति कपिल ब्राह्मण आ गया। निरन्तर क्रोध करने वाले उस विप्र का मन दावानल के समान था, वचन कालकूट के समान थे और मुख उल्लू के सदृश था । शिर पर बड़ी चोटी एव मुख पर दाढी थी । उसको दखने से ऐसा प्रतीत होता था कि मानो साक्षात यमराज ही हो।
महापुरुष राम और लक्ष्मण को देखकर उस विप्र का क्रोध रूपी समुद्र उमड़ गया। मुख एवं भौहें अत्यन्त कुटिल हो गई। उसने तीक्ष्ण वचन रूपी शस्त्र से हृदय को विदारते हुये कहाहे पापिनी तूने इनको यहां क्यों प्रवेश करने दिया। हे दुष्टे ! इन पापी निर्लज्ज ढीठ ने मेरी यज्ञशाला को दूषित कर दिया। इस प्रकार ब्राह्मण के कठोर एव अपशब्दों को सुनकर सीता ने कहा-हे आर्य ! हिसक पशुओ से भरे हुये निर्जन बन में रहना उचित है, परन्तु इन अपशब्दो से तिरस्कृत होकर यहां रहना योग्य नही है । इसलिये इस कुकर्म अपशब्द कहने वाले पापी का स्थान शीघ्र छोड़ दो।
उसके वचनो के आघात से लक्ष्मण के नेत्र क्रोध से रक्त हो गये । ज्योंही राम के अनुज [३८]