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से है। अंदर जो माँगने वाले परमाणु हैं, वे बदलते रहते हैं इसीलिए ऐसा हो जाता है कि भाने वाली चीज़ नहीं भाती और न भाने वाली चीज़ भाने भी लग जाती है ।
क्या दादाश्री को पसंदगी - नापसंदगी रहती है ? रहती है लेकिन वह ड्रामेटिक होती है। पसंदगी - नापसंदगी वह स्थूल शरीर का स्वभाव है। शास्त्र में रति-अरति कहा है उसे । दादाश्री भी गद्दी पर बैठना पसंद करते हैं लेकिन अगर कोई कहे कि 'नहीं नीचे बैठो', तो वैसा । फिर उसमें अंदर एक परमाणु भी नहीं हिलता ।
महात्माओं का जितना डिस्चार्ज अहंकार शुद्ध करना बाकी है, उतने ही डिस्चार्ज राग-द्वेष होते हैं उन्हें ।
उपेक्षा और द्वेष में क्या फर्क है ? उपेक्षा यानी नापसंद हो, फिर भी द्वेष नहीं, और द्वेष अर्थात् नापसंद पर द्वेष रहता है । कुसंग की उपेक्षा रखनी है, द्वेष नहीं रखना है। अज्ञानी द्वेष रखते हैं । उपेक्षा अर्थात् द्वेष भी नहीं और राग भी नहीं ।
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खुद के हिताहित का साधन देखे तो उपेक्षा करता है । उपेक्षा में अहंकार है ।
निःस्पृही और उपेक्षा में क्या फर्क है ? नि:स्पृही अर्थात् 'हम' वाला अर्थात् उसमें अहंकार बढ़ता जाता है और उपेक्षा में से वीतरागता जन्म लेती है।
अभाव में द्वेष रहता है । डिसलाइक में द्वेष नहीं रहता । उपेक्षा और उदासीनता में क्या फर्क है ?
उदासीनता और वीतरागता में बहुत ही कम डिफरन्स है । उदासीन होने के लिए अहंकार की ज़रूरत नहीं है । उपेक्षा में अहंकार की ज़रूरत
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है।
उदासीनता तो वैराग आने के बाद की उच्च दशा है । वीतराग होने से पहले की दशा है। उदासीन अर्थात् क्या ? देखने पर कोई चीज़ अच्छी लगती है और जब तक नहीं देखे तब तक याद भी नहीं आता, उदासीन दशा । चीज़ भोगते हैं लेकिन जैसे ही वह चली जाए तो फिर कुछ भी
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